पटना, ९ अप्रैल । अद्भुत ज्ञान-पिपासु और सदा-अतृप्त जिज्ञासु थे महापंडित राहुल सांकृत्यान। जगत और जगदीश को जानने की उनकी अकुलाहट बहुत भारी थी। वे संसार के सभी निगूढ़ रहस्यों को शीघ्र जान लेना चाहते थे। यही अकुंठ जिज्ञासा उन्हें जीवन-पर्यन्त बेचैन और विचलित किए रही, जिससे वे कभी, कहीं भी स्थिर नहीं रह सके। दौड़ते-भागते रहे। किंतु इसी बेचैनी ने उन्हें संसार का सबसे बड़ा यायावर साहित्यकार, चिंतक और महापंडित बना दिया। जब पर्यटन और देशाटन का कोई भी सुलभ साधन नहीं था, उस काल में भी उन्होंने संपूर्ण भारत वर्ष की हीं नहीं, तिब्बत, चीन, श्रीलंका और रूस तक की लम्बी यात्राएँ की। जहाँ गए वहाँ की भाषा सीखी, इतिहास और साहित्य का गहन अध्ययन किया और संसार के सभी धर्मों का सार-तत्त्व लेकर अपने विपुल साहित्य के माध्यम से संसार को लाभान्वित किया। वे विश्व की ३६ भाषाओं के पंडित और प्रयोगता थे। हिन्दी का संसार उन्हें यात्रा-साहित्य का पितामह मानता है। खच्चरों पर लाद कर उन्होंने तिब्बत से अनेक दुर्लभ पांडुलिपियाँ वापस कर भारत को दी, जो आज भी पटना के संग्रहालय में उपलब्ध है।यह बातें शनिवार को, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित जयंती, लघुकथा गोष्ठी और पुस्तक-लोकार्पण समारोह की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, उनकी विद्वता और मेधा अद्भुत थी, जिनसे प्रभावित होकर काशी के पंडितों ने उन्हें ‘महापंडित’ की उपाधि दी। वे बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के भी अध्यक्ष रहे, जिसपर सम्मेलन को सदा गौरव रहेगा। उनका बहु-चर्चित उपन्यास ‘बोल्गा से गंगा’ उनकी ऐसी अमर-कृति है, जिसे पढ़कर एक सामान्य व्यक्ति भी, आदिम-काल से आधुनिक-संसार तक, मानव सभ्यता कैसे आगे बढ़ी, जान सकता है। वे निरंतर चलते और लिखते रहे। जब उनके पैर थमते, तब लेखनी चलने लगती। वे अद्वितीय यायावर थे।इस अवसर पर युवा लेखिका शीतल प्रसाद की दो पुस्तकें ‘कैसे लिखूँ मैं अपनी प्रेम कहानी’ तथा ‘चुनौतियाँ जीवन का दूसरा नाम’ का लोकार्पण भी किया गया। पुस्तक के संबंध में अपना विचार रखते हुए डा सुलभ ने कहा कि लेखिका एक भाव-संपन्न प्रतिभाशाली उपन्यासकार हैं। अनुभव और अध्ययन के साथ इनका कला-पक्ष भी परिष्कृत होगा, ऐसा विश्वास करने का मन करता है।समारोह का उद्घाटन करते हुए, पूर्व केंद्रीय मंत्री और सुख्यात चिकित्सक डा सी पी ठाकुर ने कहा कि, सम्मेलन ने अपने आयोजनों से बहुत प्रसिद्धि पायी है। युवा साहित्यकारों का प्रोत्साहन बड़ी बात है, जो सम्मेलन ने आज भी और पहले भी किया है। अब इसे फिर से अपनी पत्रिका का नियमित प्रकाशन करना चाहिए। हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन में राहुल जी समेत बिहार के विद्वानों का बहुत बड़ा योगदान है।सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेंद्रनाथ गुप्त, डा मधु वर्मा, डा अर्चना त्रिपाठी, लेखिका शीतल प्रसाद, रमेश कँवल, बच्चा ठाकुर, बाँके बिहारी साव, चंदा मिश्र तथा डा विनय कुमार विष्णुपुरी ने भी अपने विचार रखे।इस अवसर पर आयोजित लघुकथा-गोष्ठी में, सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने ‘क्यों?’, डा मेहता नगेंद्र सिंह ने ‘बुढ़ा पेड़’, डा विभा रानी श्रीवास्तव ने ‘आक्षेप’, डा ध्रुव कुमार ने ‘ललक’, रामनाथ राजेश ने ‘फ़ोन’, रौली कुमारी ने ‘दान’, डा आर प्रवेश ने ‘अहंकार’ , ई अशोक कुमार ने’सम्मान’, डा पूनम सिन्हा श्रेयसी ने ‘लाचार आँखें’, श्याम बिहारी प्रभाकर ने ‘निरदायी औरत’, डा कुंदन लोहानी ने ‘चुनौतियाँ’, डा अर्जुन प्रसाद सिंह ने ‘परिस्थिति का दास’, सिद्धेश्वर ने ‘ख़ुदगर्ज़’ तथा संगीता गोविल ने ‘अपना अपना कल’ शीर्षक से अपनी लघुकथा का पाठ किया। मंच का संचालन ओम् प्रकाश पाण्डेय ‘प्रकाश’ ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन प्रबंधमंत्री कृष्णरंजन सिंह ने किया।सम्मेलन के पुस्तकालय मंत्री जय प्रकाश पुजारी, प्रो सुखित वर्मा, डा शालिनी पाण्डेय, डा सुषमा कुमारी, अमन वर्मा, कुमार गौरव, डा प्रेम प्रकाश, रश्मि श्रीवास्तव, चंद्रशेखर