पटना, १६ अगस्त । निरंतर हो रहे जीवन-मूल्यों के ह्रास और चारित्रिक पतन से समाज को बचाना साहित्यकारों का ही दायित्व है। चतुर्दिक दृष्टि फैलाने के बाद अब एक मात्र आशा साहित्य से रह गई है। साहित्य और साहित्यकार ही समाज की रक्षा कर सकते हैं। आदि-काल से अबतक यही होता आया है। नए आदर्श और मूल्यों की स्थापना भी साहित्य से हुआ है। भारत की स्वतंत्रता के अमृत-पर्व में देश के साहित्यकार व्रत लें और अपने शब्द, स्वर और आचरण से नई पीढ़ी को प्रेरणा दें।यह आह्वान, सोमवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित स्वतंत्रता के अमृत-पर्व-समारोह में झंडोत्तोलन के पश्चात अपने संबोधन में सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि द्वंद्व और युद्ध के महा-संग्राम के मुख पर खड़ा सारा संसार आज भारत की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहा है, जिसका एक मात्र आशा-कुसुम साहित्य-समाज है।इस अवसर पर, राष्ट्र-भक्ति गीत-गोष्ठी भी आयोजित हुई, जिसमें सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद, डा पुष्पा जमुआर, मोहन दूबे, कुमार अनुपम, डा रेखा सिन्हा, डा मेहता नगेंद्र सिंह, श्याम बिहारी प्रभाकर, कौसर कोल्हुआ कमालपुरी, डा आर प्रवेश और अर्जुन प्रसाद ने अपने गीतों का पाठ किया। मंच का संचालन सुनील कुमार दूबे ने तथा धनयवाद-ज्ञापन सम्मेलन के प्रधानमंत्री डा शिववंश पाण्डेय ने किया।सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा, डा कल्याणी कुसुम सिंह, सरदार महेन्दर पाल सिंह ढिल्लन, आनंद मोहन झा, सदानंद प्रसाद, डा मनोज गोवर्द्धनपुरी, डा अर्चना त्रिपाठी, डा पूनम आनंद, श्रीकांत व्यास, ज्ञानेश्वर शर्मा, डा कुंदन लोहानी, प्रवीर पंकज, डा सुषमा कुमारी, डा पंकज प्रियम, प्रियंका प्रिया, नीता सिन्हा, सुरभि पाण्डेय, सरिता कुमारी, सुषमा सिन्हा, डौली कुमारी, धर्मेश मेहता, संजीव कुमार कर्ण, कौशलेंद्र कुमार समेत बड़ी संख्या में साहित्यकार और प्रबुद्धजन उपस्थित थे।