पटना, १८ नवम्बर। “कहने को तो कहते है ग़ज़ल और बहुत लोग/ कहते हैं मगर लोग की कहता हूँ ग़ज़ल मैं”। ये पंक्तियाँ सुनने में कवि की गर्वोक्ति लग सकती है, किंतु यह सत्य है कि हिन्दी और मगही के वरिष्ठ कवि मृत्युंजय मिश्र ‘करुणेश’ वर्तमान समय में सबसे बड़े हिन्दी ग़ज़ल-गो हैं। आत्म-प्रचार के इस दौर से बहुत दूर के कवि श्री करुणेश आलोचकों की दृष्टि से प्रायः ओझल ही रहे हैं, किंतु दिनकर, नेपाली,जानकी वल्लभ शास्त्री, प्रभात, वियोगी, बच्चन आदि हिन्दी के महान कवियों के साथ मंच साझा करने वाला यह कवि, दुष्यंत के बाद हिन्दी का सबसे बड़ा ग़ज़ल-गो है।यह बातें शुक्रवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में स्तुत्य कवि पं बुद्धिनाथ झा की जयंती पर आयोजित पुस्तक-लोकार्पण समारोह एवं कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि करुणेश जी की यह १२वीं काव्य-कृति है, जिसमें इनके १११ लोकप्रिय ग़ज़लों का संग्रह है, जिसमें रचनाकार की काव्य-प्रतिभा, शब्द-संयोजन, काव्य-कौशल और जीवन के विविध-पक्षों की मार्मिक अनुभूतियों को मधुर स्वर मिले हैं। करुणेश के शब्द अनुभूतियों और विचारों को इस तरह रखते हैं कि पाठक मुग्ध हो जाता है।१९४२ क्रांति के अग्र-पांक्तेय नायकों में एक, महान स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता और साहित्यकार पं बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ को उनकी जयंती पर स्मरण करते हुए, डा सुलभ ने कहा कि वे एक आदर्श राजनेता और स्तुत्य साहित्यकार थे। स्वतंत्रता पूर्व १९३७ में बिहार विधान सभा के लिए हुए निर्वाचन में गोड्डा से विधायक चुने गए कैरव जी १९४२ के आंदोलन में अंग्रेज़ी सरकार द्वारा गिरफ़्तार कर लिए गए थे और उन्हें भागलपुर सेंट्रल जेल में बंद रखा गया था। स्वतंत्रता के पश्चात वे १९५७ तक विधान सभा के सदस्य रहे, किंतु पटना या देवघर में, जिसे उन्होंने अपना कर्मक्षेत्र बनाया एक घर तक नहीं बना सके। राजनीति उनके लिए सत्ता-सुख की नहीं, सेवा और आत्म-सुख की साधन रही। वे साहित्य सम्मेलन के प्रचारमंत्री भी थे। आदिम जातियों के बीच हिन्दी के प्रचार में उनके योगदान को सदा स्मरण किया जाएगा। वे देवघर-विद्यापीठ के संस्थापक निबन्धक तथा महेश नारायण साहित्य शोध संस्थान, दुमका के अध्यक्ष थे।पुस्तक का लोकार्पण करते हुए ‘बिहार गीत’ के रचनाकार और हिन्दी प्रगति समिति, बिहार के अध्यक्ष कवि सत्य नारायण ने कहा कि हिन्दी में ग़ज़ल की बात तब आयी जब दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें कमलेश्वर ने अपनी पत्रिका ‘सारिका’ में निरंतरता से छापने लगे थे। यह समय १९७४ के आंदोलन का समय था। सड़क पर आंदोलनकारी ही नहीं कवि-लेखक भी उतरे। हिन्दी के नए कवियों को दुष्यंत ने बहुत प्रभावित किया और हिन्दी में ग़ज़लें ख़ूब लिखी जाने लगी। करुणेश जी ने इस परंपरा को बहुत ऊँचाई दी है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने इस पुस्तक का प्रकाशन कर श्लाघ्य कार्य किया है।सम्मेलन के उपाध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार जियालाल आर्य, डा शंकर प्रसाद, डा मधु वर्मा, ओम् प्रकाश पाण्डेय ‘प्रकाश’, कुमार अनुपम, बच्चा ठाकुर, डा प्रतिभा रानी, श्रीराम तिवारी, बाँके बिहारी साव तथा डा बी एन विश्वकर्मा ने भी अपने विचार व्यक्त किए।इस अवसर पर आयोजित कविसम्मेलन का आरंभ चंदा मिश्र की वाणी-वंदना से हुआ। गीत के चर्चित कवि ब्रह्मानन्द पाण्डेय, मधुर कंठी कवयित्री आराधना प्रसाद, डा अर्चना त्रिपाठी, मशहूर शायरा तलत परवीन, शमा कौसर ‘शमा’, डा मीना कुमारी परिहार, सिद्धेश्वर, डा शालिनी पाण्डेय, डा मीना कुमारी, प्रेमलता सिंह राजपुत, कमल किशोर कमल, सदानंद प्रसाद, मोईन गिरिडिहवी, अर्जुन प्रसाद सिंह, ने भी अपने काव्यपाठ से श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव डाला। मंच का संचालन सुनील कुमार दूबे ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।इस अवसर पर, वरिष्ठ समाजसेवी रामाशीष ठाकुर, डा चंद्रशेखर आज़ाद, अमन वर्मा, दुःख दमन सिंह, बसंत गोयल, अजित कुमार भारती,राम किशोर सिंह ‘विरागी’, विजय कुमार दिवाकर, सुमन कुमार, नेहाल कुमार सिंह ‘निर्मल’, अमित कुमार सिंह, मनोज कुमार आदि बड़ी संख्या में प्रबुद्धजन उपस्थित थे।