पटना, २१ दिसम्बर। तरुणाई से मृत्यु तक अपने हृदय में आग लिए जीते रहे रामवृक्ष बेनीपुरी। वे एक महान क्रांतिकारी, अद्भुत प्रतिभा के साहित्यकार, प्रखर वक्ता, मनीषी संपादक, दार्शनिक चिंतक, राजनेता और संघर्ष के पर्यायवाची व्यक्तित्व थे। हिन्दी-संसार उन्हें ‘कलम के जादूगर’ के नाम से जनता है।यह बातें आज यहाँ बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित जयंती-समारोह, पुस्तक-लोकार्पण एवं लघुकथा-गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, बेनीपुरी जी छात्र-जीवन से ही स्वतंत्रता-आंदोलन में कूद पड़े और उनकी तप्त लेखनी का मुँह अंग्रेज़ों और शोषक समुदाय के विरुद्ध खुल गया। परिणाम में जेल की यातनाएँ मिली। वे विभिन्न जेलों में लगभग ९वर्ष बिताए। किंतु जेल-प्रांगण को भी उन्होंने साहित्य का तपोस्थली बना लिया। जब-जब जेल से निकले, उनके हाथों में अनेकों पांडुलिपियाँ होती थी। ‘पतितों के देश में’, ‘क़ैदी की पत्नी’, ‘ज़ंजीरें और दीवारें’, ‘गेहूँ और गुलाब’ जैसी उनकी बहुचर्चित पुस्तकें जेल में ही लिखी गईं। उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं को अपनी विपुल लेखनी से समृद्ध किया, जिनमें नाटक, उपन्यास, काव्य, निबंध, आलोचना और साहित्यिक-संपादन सम्मिलित है। वे दो बार विधायक चुने गए और हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रहे।इस अवसर पर, विदुषी युवा लेखिका डा सुषमा कुमारी की पुस्तक ‘हिन्दी बाल साहित्य में बाल-विमर्श’ का लोकार्पण भी किया गया। लेखिका की साहित्यिक-प्रतिभा को रेखांकित करते हुए, डा सुलभ ने कहा कि सुषमा जी की गंभीर रचनाशीलता पाठकों का ध्यान खींचने में सफल हुई है। इनमे गद्य और पद्य, दोनों में, लेखन का प्रचूर सामर्थ्य है। इन्हें अपनी लेखनी को धार देने की प्रक्रिया को सदैव जारी रखना चाहिए।समारोह के मुख्य अतिथि और पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति हेमंत कुमार श्रीवास्तव ने कहा कि बच्चों में संस्कार विकसित करने के लिए, उनमें बाल-साहित्य के प्रति रुझान उत्पन्न करना चाहिर। इस समय का दुर्भाग्य यह है कि आज हर बच्चे के हाथ में मोबाइल दिखाई देता है। इनके हाथ से मोबाइल छीनें तो गृह-कलह आरंभ हो जाता है। हमें इसे बुद्धि-चातुर्य से रोकना होगा।इसके पूर्व अतिथियों का स्वागत करते हुए, सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने कहा कि पुस्तक की लेखिका ने बहुत ही श्रमपूर्वक हिन्दी के बाल-साहित्य में बाल-विमर्श को रेखांकित किया है। यह एक शोध-प्रबंध है और इसमें बाल-मनोविज्ञान को विस्तार से परिभाषित करने की चेष्टा की गई है और इस क्षेत्र के एक बड़े अभाव की पूर्ति भी हुई है।अपने कृतज्ञता-ज्ञापन में पुस्तक की लेखिका ने कहा कि इन दिनों साहित्य में ‘नारी-विमर्श’, ‘दलित-विमर्श’आदि अनेक चिंतन के विषय हो गए हैं तो ‘बाल-विमर्श’ क्यों नहीं? इसी प्रश्न के उत्तर में इस पुस्तक का सृजन हुआ है। लेखिका के पिता केंद्रीय सेवा से अवकाश प्राप्त अधिकारी वीरेंद्र दूबे, आर एन सिंह, डा बी एन विश्वकर्मा, चंदा मिश्र, बाँके बिहारी साव, डा अर्चना त्रिपाठी, डा शालिनी पाण्डेय, डा नीतू चौहान, नूतन सिन्हा, अश्मजा प्रियदर्शिनी आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए।इस अवसर पर आयोजित लघुकथा-गोष्ठी में लेखिका डा पूनम आनंद ने ‘सफ़र’, विभारानी श्रीवास्तव ने ‘सम्मान’, डा पूनम देवा ने ‘संकल्प’तथा श्याम बिहारी प्रभाकर ने ‘फ़ोटोग्राफ़र’ शीर्षक से अपनी लघुकथा का पाठ किया। मंच का संचालन कुमार अनुपम ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्णरंजन सिंह ने किया।समारोह में, अनिता कुमारी, प्रीति प्रिया, राकेशदत्त मिश्र, अश्विनी कविराज, मृत्युंजय पासवान, निधि कुमारी, विजय कुमार, नेहाल कुमार सिंह ‘निर्मल’, संतोष कुमार, नेहा कुमारी, अमित कुमार सिंह, रोहित कुमार, अतुल कुमार, अभिषेक कुमार, आचार्य विजय गुंजन आदि प्रबुद्धजन उपस्थित थे।