पटना, १ सितम्बर। साहित्य ही समाज को सुंदर और मनुष्य को ‘मनुष्य’ बनाता है। सभी कहते हैं कि ‘मनुष्य’ बनो! पर यह मनुष्यता कैसे आएगी? इसके लिए आवश्यक है कि समाज साहित्य को अपनी भाषा को महत्त्व दे और उसे आत्मसात करे। हिन्दी के लिए भारतवासी थोड़ा सा यत्न करें तो यश शीघ्र ही दुनिया की सबसे बड़ी भाषा बन जाएगी।यह बातें बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में, हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित हिन्दी पखवारा एवं पुस्तक चौदस मेला का उद्घाटन करते हुए, सिक्किम के पूर्व राज्यपाल गंगा प्रसाद ने कही। उन्होंने कहा कि साहित्य सम्मेलन का यह प्रस्ताव उचित है कि ‘हिन्दी’ को भारत की ‘राष्ट्र-भाषा’ घोषित की जाए। उन्होंने कहा कि रेल मंत्रालय एवं अन्य मंत्रालयों को चाहिए कि प्रेक्षा-गृहों में अंग्रेज़ी के स्थान पर हिन्दी की पुस्तकों को रखना चाहिएसमारोह के मुख्य अतिथि और बिहार सरकार में मंत्री समीर कमार महासेठ ने कहा कि बिहार पहला राज्य है, जिसने ‘हिन्दी’ को अपनी राजकीय भाषा बनायी थी। यही भावना संपूर्ण भारत वर्ष में आनी चाहिए। जब कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत एक है तो हिन्दी हर जगह क्यों नहीं है? हमें और सरकार को चाहिए कि मिलकर हिन्दी के सामने की बाधाओं को दूर करें।सभा की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कहा कि हिन्दी दिवस की सार्थकता तभी सिद्ध होगी, जब ‘हिन्दी’ देश की ‘राष्ट्रभाषा’ घोषित हो। १४ सितम्बर, १९४९ को, जिस दिन भारत की संविधान सभा ने हिन्दी को देश की सरकार के कामकाज की भाषा, अर्थात ‘राजभाषा’ बनाने का निर्णय लिया था, जिसके उपलक्ष्य में, पूरे देश में इस दिन ‘हिन्दी-दिवस’ मनाया जाता है, वह तो आज तक, स्वतंत्रता के ७५ वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी कार्यान्वित हुआ नहीं। तो भारत सरकार बताए कि हम १४ सितम्बर को ‘हिन्दी दिवस मनाए ही क्यों?सम्मेलन के पूर्व उपाध्यक्ष और स्मृतिशेष हिन्दी-सेवी राष्ट्रभाषा प्रहरी नृपेंद्रनाथ गुप्त को भी उनकी जयंती पर श्रद्धापूर्वक स्मरण किया गया। डा सुलभ ने कहा कि गुप्त जी का मन-प्राण हिन्दी में बसता था। जीवन-पर्यंत वे हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार और उन्नयन के लिए संघर्षशील रहे। अपनी पत्रिका ‘भाषा भारती संवाद’ के माध्यम से उन्होंने हिन्दी को संपूर्ण भारत वर्ष में लोकप्रिय बनाया। इस अवसर पर उनकी स्मृति में प्रकाशित पुस्तक ‘स्मृत्यंजलि’ तथा सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा कल्याणी कुसुम सिंह के काव्य-संग्रह ‘मन के स्वर’ का लोकार्पण भी किया गया।आरंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए सम्मेलन के प्रधानमंत्री डा शिववंश पाण्डेय ने दोनों पुस्तकों को साहित्य और समाज के लिए उपयोगी बताया और कहा कि हिन्दी दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह में नृपेंद्र नाथ गुप्त को स्मरण कर मन को बहुत तृप्ति मिल रही है। उनको श्रद्धांजलि स्वरूप सम्मेलन ने उन पर केंद्रित पुस्तक ‘स्मृत्यंजलि’ का प्रकाशन कर अपन उचित कर्तव्य पूरा किया है। आज विदुषी लेखिका डा कल्याणी कुसुम सिंह जी की पुस्तक ‘मन के स्वर’ का लोकार्पण हुआ है, जिसमें उनकी परिपक्व और लोक-मंगलकारी जीवनानुभूतियाँ प्रकट हुई हैं।दूरदर्शन बिहार के कार्यक्रम-प्रमुख डा राज कुमार नाहर, सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद, डा मधु वर्मा, डा कल्याणी कुसुम सिंह, श्री गुप्त के पुत्र आलोक गुप्त तथा विवेक गुप्त ने भी अपने उद्गार व्यक्त किए। मंच का संचालन कवि ब्रह्मानन्द पाण्डेय ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।इस अवसर पर, वरिष्ठ कवि बच्चा ठाकुर, डा पूनम आनन्द, डा पुष्पा जमुआर, डा शालिनी पाण्डेय, डा मेहता नगेंद्र सिंह, डा सुषमा कुमारी, डा रेखा भारती मिश्र, मोईन गिरिडिहवी, प्रो सुशील झा, डा अर्चना त्रिपाठी, जय प्रकाश पुजारी, चंदा मिश्र, डा नागेश्वर प्रसाद यादव, डा सीमा रानी, शमा कौसर, ज्ञानेश्वर शर्मा, कुमार अनुपम, सदानंद प्रसाद, डा मनोज गोवर्द्धनपुरी, बाँके बिहारी साव, बिंदेश्वर प्रसाद गुप्त, डा मनोज संढवार, डा प्रतिभा रानी, डा पूनम देवा, डा प्रेम प्रकाश, सुजाता मिश्र, डा मीना कुमारी परिहार, प्रो सुनील कुमार उपाध्याय, शंकर शरण मधुकर, अर्जुन प्रसाद सिंह, डा अमरनाथ प्रसाद, कमल किशोर प्रसाद, राजेश भट्ट, डा ओम् प्रकाश जमुआर, वीना कुमारी, विभा रानी श्रीवास्तव, महफ़ूज़ आलम, मीरा श्रीवास्तव,उमाकांत वरुआ, अंबरीष कांत, बाँके बिहारी साव, प्रो सुखित वर्मा, परवेज़ आलम, आदि प्रबुद्धजन उपस्थित थे।पुस्तक मेला के उद्घाटन के बाद, पुस्तक-प्रेमियों की भींड़ उनके उत्साह का परिचय दे रही थी। केवल हिन्दी प्रेमी ही नहीं, बड़ी संख्या में विद्यार्थी भी मेले का लाभ उठा रहे हैं, क्योंकि नेशनल बूक ट्रस्ट ने छात्रोपयोगी पुस्तकों की भी एक बड़ी दीर्घा लगा रखी है। मेले में १० प्रतिशत से लेकर ५० प्रतिशत तक की छूट में पुस्तकें मिल रही हैं। सम्मेलन द्वारा अनेक दुर्लभ पुस्तकों की प्रदर्शनी भी लगाई गई है। धीरे-धीरे’पुस्तक चौदास मेला’ अब ‘धन-त्रयोदशी’ मेले का संस्कृतिक रूप ले रहा है। अब प्रबुद्धजन पुस्तकों का क्रय ‘धन-त्रयोदशी’ की भावना से करने लगे हैं। लोग यह मान रहे हैं कि इस मेले से क्रय की गयी पुस्तकें घरों में ‘प्रज्ञा’ की वृद्धि कर रही हैं। घर के बच्चे पुस्तकें पढ़ने लगे हैं। उनकी मेधा भी सकारात्मक ऊर्जा से भर रही हैं।