सुरभि सिन्हा, पटना, 21 मार्च, 2024 ::प्रदोष व्यापिनी फाल्गुन पूर्णिमा में होलिका दहन करने का प्रावधान है। इस वर्ष पूर्णिमा तिथि 24 मार्च को प्रातः 9 बजकर 23 मिनट से शुरु होकर 25 मार्च को दोपहर 11 बजकर 31 मिनट तक है। होलिका दहन के लिए शुभ मूहर्त 24 मार्च को देर रात 10 बजकर 28 मिनट से 12 बजकर 27 मिनट तक है। ऐसी स्थिति में मान्यतानुसार इस वर्ष होलिका दहन जहां रात 10 बजकर 28 मिनट से 12 बजे के पहले होता है वहां होली 25 मार्च को और जहां होलिका दहन रात 12 बजे से 12 बजकर 27 मिनट के बीच होगा वहां होली 26 मार्च को मनाया जायेगा। इस प्रकार होली देश में दो दिन मनाया जा सकता है। लेकिन पूरी संभावना है कि देश में होली 25 मार्च को ही मनाया जायेगा। क्योंकि होलिका दहन रात 10 बजकर 28 मिनट से ही शुरू हो जायेगा।हम सभी लोग जानते हैं कि होली का अर्थ ही होता है रंगों की होली, बुराई पर अच्छाई की होली, दुष्प्रवृत्ति एवं अमंगल विचारों का नाश की होली, अनिष्ट शक्तियों को नष्ट कर ईश्वरीय चैतन्य प्राप्त करने और सदप्रवृत्ति मार्ग दिखाने वाला उत्सव है होली। मनुष्य के व्यक्तित्व, नैसर्गिक, मानसिक और आध्यात्मिक कारणों से भी होली का संबंध को मानते है । आध्यात्मिक साधना में अग्रसर होने हेतु बल प्राप्त करने से भी इसे जोड़ा जाता है । वसंत ऋतु के आगमन और अग्नि देवता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के रूप में भी जाना जाता है।होली का जिक्र हो और ब्रज की होली का नाम न लिया जाय, ऐसा हो ही नहीं सकता है, क्योंकि सबसे पहले होली की मस्ती की शुरुआत ब्रज की पावन धरती से हुई थी। ब्रज के बरसाना गाँव में होली एक अलग तरह से खेली जाती है जिसे लठमार होली कहते हैं। ब्रज में वैसे भी होली खास मस्ती भरी होती है क्योंकि इसे कृष्ण और राधा के प्रेम से जोड़ कर देखा जाता है। यहाँ की होली में मुख्यतः नंदगाँव के पुरूष और बरसाने की महिलाएं भाग लेती हैं, क्योंकि कृष्ण नंदगाँव के थे और राधा बरसाने की थीं। नंदगाँव की टोलियाँ जब पिचकारियाँ लिए बरसाना पहुँचती हैं तो उनपर बरसाने की महिलाएँ खूब लाठियाँ बरसाती हैं। पुरुषों को इन लाठियों से बचना होता है और साथ ही महिलाओं को रंगों से भिगोना होता है।कहा जाता है कि द्वापर युग में फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को श्रीकृष्ण अपने गोप-ग्वालों के साथ होली खेलने बरसाना गए थे, इस बीच राधा और उनकी सखियों ने लाठियों से उन पर वार किया था और श्रीकृष्ण एवं उनके सखाओं ने ढालों से खुद का बचाव किया था। होली खेलने के बाद श्रीकृष्ण और उनके सखा बिना फगुआ दिए ही नंदगांव लौट गए, तब राधा और उनकी सखियों ने योजना बनाई और फगुआ दिए बिना वापस लौटने की बात कहकर लोगों को इकट्ठा किया। इसके बाद अगले दिन यानि दशमी तिथि को वो सभी फगुआ लेने के बहाने नंदगांव पहुंचे वहां फिर से लट्ठमार होली खेली। तब से इस लीला को जीवंत रखने के लिए हर साल बरसाना की गोपियां होली का नेग लेने दशमी के दिन नंदगांव आती हैं और वहां दोबारा लट्ठमार होली का आयोजन होता है।वहीं भगवान महादेव की नगरी वाराणसी में रंगों की होली के अलावे रंगभरी एकादशी पर चिताभस्म की होली खेली जाती है। कहा जाता हैं कि भगवान महादेव के अनन्य भक्त औघड़ संतों हरिश्चन्द्र घाट पर एकत्र हो कर चिता के भस्म (राख) की होली खेलते हैं।
रंगभरी एकादशी को क्रींकुण्ड से काशी तक महाकाल की बारात निकाली जाती है और हरिश्चंद्र घाट पहुँच कर वहां भगवान महादेव के भक्त औघड़ चिता भस्म से होली खेलते हैं। बारात की शोभायात्रा में बग्घी, ऊंट, घोड़ा आदि शामिल रहता है और ट्रकों पर भक्तजन शिव तांडव नृत्य करते हुए नर-मुंड की माला पहने रहते हैं। भगवान महादेव के श्रद्धालु लोग बाबा मशान नाथ का जयकारा लगाते रहते हैं। हर हर महादेव का गगनभेदी जयकारा रास्ते भर लगाते रहते हैं। इस प्रकार रंगभरी एकादशी के दिन वाराणसी में लोग मस्ती में सराबोर होकर पूरी निष्ठा एवं हर्षोल्लास के साथ बारात में शामिल होते भाग लेते हैं।
कहा जाता है कि काशी पुराधिपति महादेव बाबा विश्वनाथ रंगभरी एकादशी पर गौरा (माता पार्वती)का गौना (विदाई) करवाने आते हैं और वाराणसी के टेढ़ी नीम से महादेव माता गौरा (पार्वती) का गौना करवाकर काशी विश्वनाथ धाम के लिए चल देते हैं। इसी खुशी में भगवान महादेव के भक्त औघड़ संतों ने हरिश्चंद्र घाट पर चिता भस्म की होली खेलते हैं और गाते हुए नाचते रहते हैं भूत पिशाच बटोरी दिगंबर, खेले मसाने में होरी। इस समय जो नाच होता है वह शिव तांडव नृत्य के अंदाज में रहता है।रंगभरी एकादशी के दिन वाराणसी के रविन्द्रपुरी स्थित भगवान महादेव की कीनाराम स्थली क्रीं कुंड से औघड़ सन्तों के साथ हरिश्चंद्र घाट तक एक विशाल शोभायात्रा निकाली जाती है। इस शोभायात्रा में उस क्षेत्र के लोग महिलाओं के साथ सक्रिय रुप से भाग लेते हैं। शोभायात्रा में सबसे आगे रथ पर बाबा मशान नाथ के विशाल चित्र रहता है और उसके पीछे महिलाएं और पुरुष शिव तांडव स्त्रोतम का पाठ करते हुए चलते रहे हैं। उसके पीछे रथों पर सवार होकर भगवान के भक्त – संत भस्म की होली खेलते रहते हैं जो लोगों के बीच आकर्षण का केंद्र बना रहता है। काशी मोक्षदायनी समिति के लोगों का कहना है कि रंगभरी एकादशी पर चिताभस्म की होली खेलने की परम्परा कुछ वर्ष पहले ही शुरु हुआ है। उनका कहना है कि क्रींकुण्ड से काशी के महाकाल की बारात निकाली जाती है और बारात यहाँ से हरिश्चंद्र घाट तक जाता हैं। जहां धधकती चिताओं के बीच चिता भस्म से बाबा के भक्त होली खेलते हैं। शोभायात्रा रविन्द्रपुरी से होकर पद्मश्री चौराहा, शिवाला चौराहा होते हुए हरिश्चंद्र घाट पहुंचती है।, जहां भक्तों के राग विराग का यह दृश्य देखकर घाट पर मौजूद लोग बाबा मशाननाथ और हर-हर महादेव का गगनभेदी उद्घोष भी करते रहते हैं।
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