जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 23 अप्रैल, 2024 ::हनुमान जी की प्रतिष्ठा लोक देवताओं के रूप में स्थापित है। वे जनमानस के आराध्य देव के रूप में सर्वत्र पूजे जाते है। हनुमान जी की आराधना करने से रुद्र, विष्णु और सूर्य की कृपा सहज ही प्राप्त हो जाता है,क्योंकि इन तीनों का अंश हनुमान जी में माना जाता है। हनुमान जी कभी अपने भक्तों से अप्रसन्न नहीं होते है और भक्तिपूर्वक आराधना करने से शीघ्र फल दे देते हैं। ज्योतिषियों के अनुसार, हनुमान जी का जन्म 1 करोड़ 85 लाख 58 हजार 116 वर्ष पहले चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्र नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 06 बजकर 03 मिनट पर हुआ था। लेकिन वाल्मीकि रचित रामायण के अनुसार, हनुमानजी का जन्म कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मंगलवार के दिन, स्वाति नक्षत्र और मेष लग्न में हुआ था। इसलिए कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि (छोटी दीपावली) मंगलवार के दिन भी हनुमान जी का जन्म दिन मनाया जाता है। ऐसी स्थिति में हनुमान जयंती वर्ष में दो बार मनाई जाती है। पहली बार हिन्दू कैलेंडर के अनुसार चैत्र शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को और दूसरी बार कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी अर्थात नरक चतुर्दशी को मनाया जाता है।पुराणों में कथा है कि केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया था लेकिन वे संतान सुख से वंचित थे। अंजना अपनी इस पीड़ा को लेकर मतंग ऋषि के पास गई थी, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा (कई लोग इसे पंपा सरोवर भी कहते हैं) सरोवर के पूर्व में नरसिंह आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है वहाँ जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करने पर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी। अंजना ने शबरी के गुरु मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर बारह वर्ष तक तप किया था, केवल वायु पर ही जीवित रही, एक बार अंजना ने “शुचिस्नान” करके सुंदर वस्त्राभूषण धारण किए। तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से प्रसन्न होकर उसके कर्णरन्ध्र में प्रवेश कर उसे वरदान दिया, कि तेरे यहां सूर्य, अग्नि एवं सुवर्ण के समान तेजस्वी, वेद-वेदांगों का मर्मज्ञ, विश्वन्द्य महाबली पुत्र होगा। दूसरी किदवंती है कि अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ के पास, अपने आराध्य शिव की तपस्या में मग्न थीं । शिव की आराधना कर रही थीं तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें वरदान मांगने को कहा, अंजना ने शिव से कहा कि साधु के श्राप से मुक्ति पाने के लिए उन्हें शिव के अवतार को जन्म देना है, इसलिए शिव बालक के रूप में उनकी कोख से जन्म लें। ‘तथास्तु’ कहकर शिव अंतर्ध्यान हो गए। इस घटना के बाद एक दिन अंजना शिव की आराधना कर रही थीं और दूसरी तरफ अयोध्या में, इक्ष्वाकु वंशी महाराज अज के पुत्र और अयोध्या के महाराज दशरथ, अपनी तीन रानियों के कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी साथ पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए, श्रृंगी ऋषि को बुलाकर ‘पुत्र कामेष्टि यज्ञ’ के साथ यज्ञ कर रहे थे। यज्ञ की पूर्णाहुति पर स्वयं अग्नि देव ने प्रकट होकर श्रृंगी को खीर का एक स्वर्ण पात्र (कटोरी) दिया और कहा “ऋषिवर! यह खीर राजा की तीनों रानियों को खिला दो। राजा की इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।” जिसे तीनों रानियों को खिलाना था लेकिन इस दौरान एक चमत्कारिक घटना हुई, एक पक्षी उस खीर की कटोरी में थोड़ा सा खीर अपने पंजों में फंसाकर ले गया और तपस्या में लीन अंजना के हाथ में गिरा दिया। अंजना ने शिव का प्रसाद समझकर उसे ग्रहण कर लिया। हनुमान जी का जन्म त्रेता युग मे अंजना के पुत्र के रूप मे, चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा की महानिशा में हुआ। अंजनी के पुत्र होने के कारण ही हनुमान जी को अंजनेय नाम से भी जाना जाता है, जिसका अर्थ होता है ‘अंजना द्वारा उत्पन्न’।
हनुमानजी को मारुति, बजरंगबली इत्यादि नामों से भी जानते हैं। मरुत शब्द से ही मारुति शब्द की उत्पत्ति हुई है। महाभारत में हनुमानजी का उल्लेख मारुतात्मज के नाम से किया गया है। हनुमान जी का एक नाम है, बजरंगबली। बजरंगबली यह शब्द व्रजांगबली के अपभ्रंश से बना है। जिनमें वज्र के समान कठोर अस्त्र का सामना करनेकी शक्ति है, वे व्रजांगबली है। जिस प्रकार लक्ष्मण से लखन, कृष्ण से किशन ऐसे सरल नाम लोगों ने अपभ्रंश कर उपयोग में लाए, उसी प्रकार व्रजांगबली का अपभ्रंश बजरंगबली हो गया।हनुमान जी सर्वशक्तिमान देवता हैं। हनुमान जी से भूत बाधा दूर होता हैं। किसी को भूत बाधा हो, तो उस व्यक्ति को हनुमान जी के मंदिर ले जा कर हनुमान जी से संबंधित स्तोत्र जैसे हनुमत्कवच, भीमरूपी स्तोत्र अथवा हनुमानचालीसा का पाठ करनेके लिए कहा जाता हैं। हनुमान जी भगवान श्रीराम से पूर्णतया एकरूप हैं। वे अपने प्रभु राम के लिए प्राण अर्पण करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। इसलिए हनुमान जी को भगवान श्रीराम भक्त कहा जाता है, अर्थात शक्ति एवं भक्तिका संगम हैं।पूर्व मुख वाले बजरंबली जी को वानर रूप में पूजा जाता है। इस रूप में भगवान को बेहद शक्तिशाली और करोड़ों सूर्य के तेज के समान बताया गया है। शत्रुओं के नाश के पूर्वमूखी हनुमान की पूजा करना चाहिए।पश्चिम मुख वाले हनुमान जी को गरूड़ का रूप माना जाता है। इसी रूप को संकटमोचन का स्वरूप माना गया है। मान्यता है कि भगवान विष्णु का वाहन गरुड़ अमर है उसी के समान बजरंगबली भी अमर हैं। यही कारण है कि कलयुग के जागृत देवताओं में बजरंगबली को माना जाता है। उत्तर मुख वाले हनुमान जी की पूजा शूकर के रूप में होती है। उत्तर दिशा यानि ईशान कोण, देवताओं की दिशा होती है।यह शुभ और मंगलकारी होता है। इस दिशा में स्थापित बजरंगबली जी की पूजा से इंसान की आर्थिक स्थिति बेहतर होती है। धन-दौलत,ऐश्वर्य, प्रतिष्ठा, लंबी आयु के साथ ही रोग मुक्त बनाती है। दक्षिण मुखी हनुमान जी को भगवान नृसिंह का रूप माना जाता है। दक्षिण दिशा यमराज की होती है और इस दिशा में हनुमान जी की पूजा से इंसान के डर, चिंता और दिक्कतों से मुक्ति मिलती है। दक्षिणमुखी हनुमान जी बुरी शक्तियों से बचाते हैं। ऊर्ध्वमुख रूपी हनुमान जी को घोड़े का रूप माना गया है। इस स्वरूप की पूजाकरने वालों को दुश्मनों और संकटों से मुक्ति मिलती है। इस स्वरूप को भगवान ने ब्रह्माजी के कहने पर धारण कर हयग्रीवदैत्य का संहार किया था।
पंचमुखी हनुमान के पांच रूपों की पूजा की जाती है। इसमें हर मुख अलग-अलग शक्तियों का परिचायक है। रावण ने जब छल से राम लक्ष्मण को बंधक बना लिया था तो हनुमान जी ने पंचमुखी हनुमान का रूप धारण कर अहिरावण से उन्हें मुक्त कराया था। उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम दिशा में गरुड़ मुख, आकाश की तरफ हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख में विराजते हैं। एकादश रूप रुद्र यानि शिव का ग्यारहवां अवतार है। ग्यारह मुख वाले कालकारमुख के राक्षस का वध करने के लिए भगवान ने एकादश मुख का रुप धारण किया था। चैत्र पूर्णिमा यानि हनुमान जयंती के दिन उस राक्षस का वध किया था। यही कारण है कि भक्तों को एकादशी और पंचमुखी हनुमान जी की पूजा सारे ही भगवानों की उपासना के समान माना जाता है। सूर्यमुखी हनुमान भगवान सूर्य का स्वरूप माना गया है। सूर्य देव बजरंगबली के गुरु माने गए हैं। इस स्वरूप की पूजा से ज्ञान, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि और उन्नति का रास्ता खोलता है।
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