लेखक: अवधेश झा/गीता ज्ञान परमतत्व का ज्ञान है! अर्थात आत्म स्थिति की समस्त ज्ञान है। गीता प्रसाद ग्रंथ है इसे ग्रहण करने वाले को ब्रह्म पुष्टि, संतुष्टि और ब्रह्म की प्राप्ति होती है। गीता समस्त वेदांत दर्शन का सार है। गीता ज्ञान यज्ञ है, इसमें हवन करने वालों का समस्त संशय रूपी अज्ञानता शीघ्र भस्म हो जाता है और पूर्ण ज्ञान का उदय होता है। इस पावन गीता में समस्त उपनिषदों के ज्ञान का समग्र और संग्रह स्वरूप उपस्थित है, जिसमें आत्मा के विषय में सूक्ष्मता से बताया गया है, तथा आत्मा अमर है, शाश्वत, नित्य, अविनाशी है और यही परम सत्य है।दर्शन शास्त्र के ज्ञाता जस्टिस राजेंद्र प्रसाद (पूर्व न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय, पटना) ने कहा कि “श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कह दिया कि “जिस आत्मा में मृत्यु का कोई स्थान नहीं है (अर्थात दृश्य जगत में मृत्यु से बड़ा भय कुछ भी नहीं है), उस आत्मा में शोक, मोह, आसक्ति आदि का कैसे स्थान हो सकता है। जिस अज्ञानता के वशीभूत होकर तुम मृत्यु के भय का शोक अपने मन में धारण कर लेते हैं, वास्तव में उसका कोई स्थान ही नहीं है। आत्मा तो जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त है। इसी शोक से निकालने के लिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान स्वरूप इस प्रसाद ग्रंथ ग्रहण करने के लिए दिया है। श्रीकृष्ण परमात्मा थे। इसलिए, गीता का समस्त ज्ञान आत्मा का ही ज्ञान है।”गीता प्रसाद है; यहां प्रसाद से आशय है सर्वोत्तम भोग, जिससे उत्तम कुछ नहीं है। अर्थात, जो प्रसाद या भोग आत्मा या ब्रह्म को अर्पित किया गया है उससे उत्तम प्रसाद नहीं हो सकता है। वह आत्म प्रसाद, अगर ज्ञान का हो तो; वह ब्रह्मज्ञान स्वरूप प्रसाद ही है। अब, जिस प्रसाद को हम ग्रहण करते हैं। ग्रहण उपरांत उसकी दो स्थिति होती है। प्रथम कि, यह प्रसाद ठीक से ग्रहण होकर, सुपाच्य और पुष्टिवर्धन हुआ अथवा अनपच ही रह गया। प्रथम स्थिति तो उत्तम स्थिति है, जिसका सार्थक और उत्तम परिणाम होता है, दूसरी स्थिति: कई अन्य परिस्थिति का निर्माण कर दे सकता है। इसलिए, श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान देने के उपरांत, अर्जुन की स्थिति जानने के लिए पूछा:
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ॥
भावार्थ : हे पार्थ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और हे धनञ्जय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?॥
अर्जुन का उत्तर सुन श्रीकृष्ण का उद्देश्य पूर्ण हुआ। वास्तव में आत्मज्ञानी, जो ज्ञान का प्रसाद देते हैं; ग्रहणकर्ता से उसकी स्थिति का परख भी कर लेते हैं। अब, अर्जुन एकाग्रता से संपूर्ण ज्ञान को ग्रहण किया तो उसका शुभ परिणाम तत्क्षण ही प्रकट हो गया और बहुत हर्ष के साथ, अर्जुन ने कहा:
अर्जुन उवाच:
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव ॥
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा॥
अर्जुन ने कहा; “आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया”। वास्तव में; मोह, का स्वरूप में कहीं स्थान नहीं है। जिसका स्थान नहीं है, उसको स्थान देकर हम उसी भाव के ग्रसित होकर दुःखी थे, स्वाभाविक है कि उसका नष्ट होते ही अपने स्वरूप स्थिति का ज्ञान हो जाता है। जिस स्मृति का अर्जुन को ज्ञान हुआ, वह स्वरूप स्थिति का ज्ञान है और स्वरूप तो ब्रह्म ही है। ब्रह्म की प्राप्ति के उपरांत चित स्वतः शांत हो जाता है अर्थात आत्मा में लीन हो जाता है। स्वयं ब्रह्म स्वरूप आत्मा स्वतः ही परमात्मा के आदेश के अनुभूत सक्रिय हो जाता है और अर्जुन ने वही किया!
आत्म ज्ञान या स्वरूप की प्राप्ति के उपरांत भी पुरुषार्थ कर्म शेष रहता है, लेकिन उसके बाद, पुरूषार्थ का स्वरूप अलग हो जाता है। अब, अर्जुन का उद्देश्य युद्ध में हार – जीत से नहीं, नाहि किसी राग – द्वेष से युद्ध करना था, बल्कि, सत्य स्वरूप धर्म की स्थापना करना था और किया।
जीवन के निर्णय में संशय बहुत बड़ी रुकावट है, संशय का अंत होते ही साध्य सदृश्य प्रकट होने लगता है।
श्रीकृष्ण ने गीता ज्ञान के बारे में कहें हैं:
श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥
भावार्थ : जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा॥
इस श्लोक के माध्यम से श्रीकृष्ण कहे हैं कि जो मनुष्य अर्थात आत्मा का व्यक्त भाव मनुष्य रूप में; श्रद्धायुक्त, अर्थात मन की पूर्ण अवस्था जो आत्मोन्मुख दृष्ट हो, अंतर्मुखी हो, जिसमें इंद्रिय आदि का दोष या विषय न हो। अहंकार का आत्मा के प्रति समर्पण भाव हो तथा चित बुद्धि उन्मुख हो और बुद्धि आत्मोन्मुख हो; तो इस स्थिति में श्रवण किया गया यह गीताशास्त्र तत्क्षण फलदायी है। यहां पापों से मुक्त अर्थात चित के वृतियों के निरोध से है अर्थात आप आत्म स्थिति की यात्रा पर हैं तथा असत्य और अंधकार रूपी पाप का नाश हो चुका है। आत्मा के सत्य रूपी आचरण का उदय हो चुका है और आप सत्य में स्थिर हो गए हैं।
शास्त्र यह भी कहता है कि जब तक आप इस मनुष्य रूपी शरीर में हैं तब तक आपको यज्ञ, दान और तप कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए:
यज्ञदानतपःकर्म, न, त्याज्यम्, कार्यम्, एव, तत्,
यज्ञः, दानम्, तपः, च, एव, पावनानि, मनीषिणाम्।।
भावार्थ: (यज्ञदानतपःकर्म) यज्ञ, दान और तपरूप कर्म (न, त्याज्यम्) त्याग करनेके योग्य नहीं है बल्कि (तत्) वह तो (एव) अवश्य (कार्यम्) कर्तव्य है क्योंकि (यज्ञः) यज्ञ (दानम्) दान (च) और (तपः) तप (एव) ही कर्म (मनीषिणाम्) बुद्धिमान् पुरुषोंको (पावनानि) पवित्र करनेवाले हैं।
वास्तव में, यज्ञ, दान और तप यह “आत्म कर्म” ही है अगर आप “आत्मभाव” में स्थिर होकर करते हैं। यज्ञ अंतिम और अनंत कर्म है। अंतिम; इसलिए, क्योंकि इसके बाद कोई कर्म शेष नहीं रह जाता है। आत्मा ही परमलक्ष्य है! समस्तकर्म इस यज्ञ रूपी आत्मा को ही अर्पित और समर्पित है। अनंत इसलिए कि आत्मा की अवस्था तक इसके जारी रखते हैं। दान: इसलिए, महत्वपूर्ण है क्योंकि जगत की समस्त भोग वस्तु का अस्तित्व जगत की सार्थकता तक ही सीमित है, आत्मा की इनमें आसक्ति से बंधन होना स्वाभाविक है; इसलिए, उस वस्तु की सार्थक सदुपयोग ही दान है अर्थात जो वस्तु इस प्रकृति रूपी ब्रह्म से प्राप्त हुआ है, उन्हें ही समर्पित कर देना दान है। तप; यह एक नित्य अभ्यास है, अपने स्वरूप का दर्शन करने के लिए। समस्त वैदिक कृत्य जो शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक भाव से स्वयं स्वरूप ईश्वर के लिए किया जाता है, वह ही तप है। लेकिन, तप से जब तक स्वयं का दर्शन नहीं होगा तबतक अपने इष्टदेव का दर्शन होना दुर्लभ है। क्योंकि, आपने अपने ही स्वरूप में उनको देखेंगे, जिनके लिए आप यज्ञ, दान और जप – तप कर रहें है।
श्रीकृष्ण गीता में स्पष्ट कहते हैं आत्मा ही सत्य, नित्य और अविनाशी है। इसका स्मृति होना ही परम लक्ष्य है। इसलिए, अगर गीता का श्रवण कर रहे हैं तो अर्जुन बनके श्रवण, मनन, चिंतन और स्वरूप का दर्शन कीजिए; तो अर्जुन की स्थिति को प्राप्त करेंगे और श्रीकृष्ण आपके साथ होंगे। जय श्रीकृष्ण
(यह लेखक अवधेश झा का अपना विचार है)