पटना, ६ फरवरी। अपने समय के अत्यंत लोकप्रिय संस्कृति-पुरुष और राजनेता थे डा पूर्णेंदु नारायण सिन्हा। जब तक जीवित रहे बिहार की सांस्कृतिक-धड़कन बने रहे। कला, संगीत और साहित्य के अनन्य पोषक पूर्णेंदु बाबू एक आदर्श राजनेता और अनुरागी साहित्य-सेवी थे। उनका व्यक्तित्व अद्भुत था। औपचारिकता से सर्वथा दूर का संबंध रखनेवाले डा सिन्हा आत्मीय संबंधों में विश्वास करते थे। जीवन-भर इसका निर्वाह भी किया। उनके कारण पटना में उत्सवों की झड़ी लगी रहती थी। ‘कौमुदी-महोत्सव’ हो या ‘महामूर्ख-सम्मेलन’ या फिर कला, संगीत और नाट्य के समारोह, सबके अगुआ डा सिन्हा होते थे। उत्सवों और संस्थाओं की गिनती नहीं की जा सकती थी, जिनसे उनके सरोकार थे। पटना नगर के प्रायः सभी सारस्वत कार्यों और सेवाओं के प्राण थे डा पूर्णेंदु। विधान पार्षद और बिहार सरकार के मंत्री के रूप में भी उन्होंने प्रांत की बड़ी सेवाएँ की ।यह बातें गुरुवार को, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित डा पूर्णेंदु नारायण सिन्हा स्मृति-पर्व और लघुकथा गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। उन्होंने कहा कि एक राजनेता को कैसा होना चाहिए? डा पूर्णेंदु इस प्रश्न के उत्तर, उदाहरण और आदर्श थे। साहित्य, कला और संगीत से बढ़ रही दूरी आज के राजनेताओं को समाज और मनुष्यता से दूर करती जा रही है। जिन लोगों ने पिछली सदी के छठे दशक से अंतिम दशक तक पटना की गतिविधियाँ देखी होंगी, वे ही पूर्णेंदु बाबू को जानते होंगे। उनके एक हाथ में राजनीति और दूसरे हाथ में साहित्य और संस्कृति थी। वे उन लोगों में थे, जो अपना घर जलाकर दूसरों को रौशनी देते हैं। साहित्य सम्मेलन से उनका गहरा संबंध था। वे इसके आयोजनों में बढ़चढ़ कर भाग लेते थे। वे बिहार के गौरव-पुरुषों में से एक थे। इसी नाम से एक पुस्तक आयी थी, जिसमें देशरत्न डा राजेंद्र प्रसाद, बाबू श्रीकृष्ण सिंह, अनुग्रह बाबू आदि महापुरुषों के साथ पूर्णेंदु बाबू का भी नाम था और उनके विषय में सुंदर आलेख था।समारोह का उद्घाटन करते हुए, पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और राज्य उपभोक्ता संरक्षण आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति संजय कुमार ने कहा कि, पूर्णेंदु बाबू का व्यक्तित्व बहु-आयामी था। वे एक उच्च कोटि के साहित्यकार, समाजसेवी, संस्कृति-उन्नायक, चिकित्सक और राजनेता थे। उन्होंने उच्च राजनैतिक मानदंड की स्थापना की। उनका जीवन समाज के लिए मार्ग-दर्शक है।सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधुवाला वर्मा, प्रो निर्मल कुमार श्रीवास्तव, डा रत्नेश्वर सिंह, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अवकाश प्राप्त अधिकारी बच्चा ठाकुर, वरिष्ठ पत्रकार रविकान्त शुक्ल, रंजन कुमार अमृतनिधि, चंदा मिश्र तथा पारिजात सौरभने भी अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। अवसर पर आयोजित लघुकथा-गोष्ठी में, डा पूनम आनन्द ने ‘कुंभ” शीर्षक से, डा पुष्पा जमुआर ने ‘महाकुंभ’, डा मधु वर्मा ने ‘अंतर्व्यथा’,डा मीना कुमारी परिहार ने ‘आत्म-ग्लानि’, ईं अशोक कुमार ने ‘नारी-संस्कृति’, कुमार अनुपम ने ‘क्रोध’, मीरा श्रीवास्तव ने ‘करुणामयी’, शमा कौसर ‘शमा’ ने ‘आँसू’, डा अनिल कुमार शर्मा ने ‘ज्ञान’, अरविन्द अकेला ने ‘श्वान’, संजू शरण ने ‘नो एंट्री’, सरिता कुमारी लाचारी’, शंकर शरण आर्य ने ‘चरित्र-हनन’, नरेंद्र कुमार ‘इंतज़ार’ तथा नन्दन कुमार ने ‘सलाह’ शीर्षक से अपनी लघुकथा का पाठ किया। मंच का संचालन कवि ब्रह्मानन्द पाण्डेय ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया। साम्मेलन के अर्थमंत्री प्रो सुशील कुमार झा, कवयित्री सुनीता रंजन, नीता सहाय, डा अनिल कुमार शर्मा, डा चन्द्रशेखर आज़ाद, मनोज कुमार यादव, उपेंद्र कुमार, प्रेम अग्रवाल, मणि भूषण कुमार, नन्दन कुमार चित्रकार, प्रियंका सिंह समेत बड़ी संख्या में प्रबुद्धजन उपस्थित थे।
