पटना, १९ फरवरी। चमत्कृत करने वाली प्रतिभा और विद्वता के कवि और काव्य में प्रपद्य-वाद के प्रवर्त्तक आचार्य नलिन विलोचन शर्मा आलोचना-साहित्य के शिखर-पुरुष थे। वे न होते तो श्रेष्ठ आँचलिक उपन्यासकारके रूप में हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठित हो जाने वाले फणीश्वरनाथ रेणु भी ‘रेणु’ न होते। रेणु जी भी उन सैकड़ों प्रतिभाशाली साहित्यकारों की भाँति अलक्षित ही रह जाते, जिन पर विद्वान आलोचकों की दृष्टि नहीं पड़ी।
यह बातें बुधवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित जयंती-समारोह और कवि-सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, नलिन जी ने ४५ वर्ष की अपनी अल्पायु में १४५ वर्ष के कार्य कर डाले। हिन्दी-संसार अपने उस महान पुत्र पर गर्व करता है। पटना विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक और साहित्य-सम्मेलन के साहित्यमंत्री के रूप में उनके कार्य अतुल्य हैं। वर्ष १९५० से १९६२ तक उन्होंने आचार्य शिवपूजन सहाय के साथ ‘साहित्य’ के संपादन में ऐसी अनेक समालोचनाएँ लिखीं, जिनसे हिन्दी साहित्य में आलोचना के मानदंड निश्चित हुए। ‘मानदंड’ शीर्षक से उनकी एक समालोचना की पुस्तक भी आई, जो आज भी आलोचना का मानदंड बनी हुई है। आकाशवाणी में निदेशक रहे सुप्रसिद्ध कथाकार राधा कृष्ण प्रसाद के आग्रह पर उन्होंने रेणु जी की पुस्तक ‘मैला-आँचल’ का अध्ययन किया था और उसकी समीक्षा लिखी। उनके इस कथन ने कि “यह हिन्दी का ‘सर्वश्रेष्ठ आंचलिक उपन्यास’ है”, रेणु जी को रातोंरात हिन्दी के अग्र-पांक्तेय लेखकों में प्रतिष्ठित कर दिया।
डा सुलभ ने कहा कि नलिन जी ने संस्कृत, पाश्चात्य साहित्य और मार्क्स-साहित्य का गहारा अध्ययन किया था। वे मात्र ९ वर्ष के थे तभी उनके विद्वान पिता पं रामावतार शर्मा ने उन्हें ‘संस्कृत अमरकोष’, कालीदास का ‘मेघदूतम’ जैसी विश्व स्तरीय रचनाओं को रटा दिया था। नलिन जी की विद्वता हिन्दी साहित्य को कुछ दिन और प्राप्त हुई होती तो हम आलोचना-साहित्य में कुछ और ही देख पाते।
जयंती पर डा रंगी प्रसाद सिंह ‘रंगम’ को स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि रंगम जी एक महान कैंसर-रोग-विशेषज्ञ के साथ एक आदरणीय साहित्यकार भी थे। विज्ञान और साहित्य मिलकर किस प्रकार लोक-मंगल कारी हो जाते हैं, वे इसके उदाहरण थे। उनके एक हाथ में चिकित्सा-विज्ञान और दूसरे में साहित्य था। उनकी कविताओं का मूल स्वर ‘प्रकृति और प्रेम’ है। रंगम जी के भीतर करुणा और प्रेम का एक सागर लहराता रहा। थे तो रेडियोलौजिस्ट, किंतु कैंसर की चिकित्सा में उन्होंने सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। हृदय-रोग की चिकित्सा में जो स्थान डा श्रीनिवास का है, वही स्थान कैंसर-रोग के उपचार में, रंगम जी का है। वे साहित्य सम्मेलन के अर्थमंत्री और उपाध्यक्ष भी रहे।
सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा, डा कुमार अरुणोदय, भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी बच्चा ठाकुर, डा रत्नेश्वर सिंह, डा किशोर सिन्हा, ईं आनन्द किशोर मिश्र, प्रो सुनील कुमार झा, बाँके बिहारी साव आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
इस अवसर पर आयोजित कवि-सम्मेलन का आरंभ चंदा मिश्र ने वाणी-वंदना से किया। वरिष्ठ कवि रमेश कँवल, मधुरेश नारायण, प्रो सुनील कुमार उपाध्याय, शमा कौसर ‘शमा’, कुमार अनुपम, जय प्रकाश पुजारी, डा मीना कुमारी परिहार, सिद्धेश्वर, डा अनिल कुमार शर्मा, ईं अशोक कुमार, सुनीता रंजन, मृत्युंजय गोविंद, रौली कुमारी, शंकर शरण आर्य, सूर्य प्रकाश उपाध्याय, शंकर शरण आर्य, अजीत कुमार भारती, वीणा अम्बष्ठ आदि कवियों ने अपनी सुमधुर रचनाओं से दोनों साहित्यिक विभूतियों को काव्यांजलि दी। मंच का संचालन कवि ब्रह्मानन्द पाण्डेय ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन प्रबंध मंत्री कृष्ण रंजन सिंह ने किया। अधिवक्ता दिवाकर भारतीय, नन्दन कुमार मीत, अमन वर्मा, नीता सिन्हा आदि प्रबुद्ध जन उपस्थित थे।