पटना,६ अगस्त। महाकवि रामदयाल पाण्डेय न केवल एक महान स्वतंत्रता–सेनानी,राष्ट्रीय भाव के यशमान कवि, तेजस्वी पत्रकार और हिंदी के महान उन्नायकों में से एक थे,बल्कि सिद्धांत और आदर्शों से कभी न समझता करने वाले एक स्वाभिमानी साधु–पुरुष थे। महाकवि मैथिली शरण गुप्त खड़ी बोली हिन्दी के महान उन्नायक थे तो बाबू गंगा शरण सिंह, हिन्दी के प्रचार–प्रसार के लिए जो अघोषित सेना पूरे देश में दौड़ रही थी, उसके सेनापति हीं थे। इन तीनों हिन्दी–सेवियों ने आधुनिक हिन्दी के उन्नयन के लिए जो श्रम, साधना और त्याग किए वह प्रशंसा नहीं पूजा योग्य है।
यह बातें मंगलवार की संध्या,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में तीनों विभूतियों के संयुक्त जयंती समारोह की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि पाण्डेय जी ने हिंदी और हिंदी साहित्य सम्मेलन की बड़ी सेवा की। पाँच–पाँच बार सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गए। सम्मेलन भवन के निर्माण में अपने सिर पर ईंट–गारे ढोए और अन्य साहित्यकारों को भी इस हेतु प्रेरित किया। उन्होंने भारत सरकार के स्वतंत्रता–सेनानी पेंशन लेने से यह कह कर इनकार कर दिया कि, “भारत माता की सेवा पुत्र की भाँति की, किसी कर्मचारी की तरह नहीं, कि सेवा–शुल्क लूँ।“
डा सुलभ ने कहा कि, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा‘राष्ट्र–कवि‘की उपाधि से विभूषित और भारत सरकार के पद्म–भूषण सम्मान से अलंकृत स्तुत्य कवि मैथिलीशरण गुप्त, नव विकसित खड़ी बोली का नाम‘हिन्दी‘ के स्थान पर ‘भारती‘रखने के पक्षधर थे। उनका मानना था कि, क्योंकि यह ‘भारत‘ की भाषा है इसलिए इसका नाम ‘भारती‘हीं होना चाहिए। गुप्त जी जीवन–पर्यन्त भारत और भारती के गीत गाते रहे और यह प्रार्थना करते रहे कि“मानस–भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती/भगवान ! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती“। वे खड़ी बोली के उन्नायकों में मूर्द्धन्य और ‘साकेत‘खंड–काव्य के रूप में रामकथा लिखने वाले हिन्दी के प्रथम कवि हैं।
बाबू गंगा शरण सिंह को स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि गंगा बाबू हिन्दी संसार में अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जिनके हिस्से में साहित्य की एक भी पुस्तक नहीं है, किंतु एक सेनापति की भाँति उन्होंने देश भर में हिन्दी–प्रचारकों का नेतृत्व किया ।
आरंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए सम्मेलन के प्रधानमंत्री डा शिववंश पाण्डेय ने कहा कि,अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात रामदयाल पाण्डेय जी ने आजीविका के लिए सरकारी नौकरी में जाना अस्वीकार कर दिया। वे यह मानते थे कि जिस सरकार के विरोध में खड़े हैं,उस सरकार की सेवा वे नहीं कर सकते। उन्होंने आजीविका के लिए पत्रकारिता को अपनाया। स्वतंत्रता के पश्चात बिहार में हिन्दी के विषय में हर एक कार्य के लिए उन्हें स्मरण किया जाता था।हिन्दी प्रगति समिति और हिन्दी विधाई समिति के वे प्रथम अध्या हुए। राष्ट्रभाषा परिषद के उपाध्यक्ष–सह–निदेशक बनाया गया था।
सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेंद्र नाथ गुप्त, डा शंकर प्रसाद, बच्चा ठाकुर,विभारानी श्रीवास्तव,डा अर्चना त्रिपाठी,डा विनय कुमार विष्णुपुरी,डा मनोज गोवर्द्धनपुरी,आनंद मोहन झा तथा पल्लवी विश्वास ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
इस अवसर पर आयोजित कवि–गोष्ठी का आरंभ राज कुमार प्रेमी ने वाणी वंदना से किया। वरिष्ठ कवि डा शंकर प्रसाद ने कहा कि, “उस बेवफ़ा को जाने ग़ज़ल कह रहे हैं लोग/ पत्थर है, उसे ताजमहल कह रहे हैं लोग“। व्यंग्य के कवि ओम् प्रकाश पाण्डेय ‘प्रकाश‘ने देश की ताज़ा राजनैतिक परिदृश्य को सामने रखते हुए यह पंक्तियाँ पढ़ी कि “ज़िंदाबाद लाख–लाख/जम्मू–कश्मीर–लद्दाख/ कं
वरिष्ठ कवि घनश्याम, सुनील कुमार दूबे, रमेश कँवल, डा अर्चना त्रिपाठी, आचार्य आनंद किशोर शास्त्री, डा शालिनी पाण्डेय, डा रवींद्र कुमार सिन्हा,विष्णु प्रभाकर,सच्चिदानंद सिन्हा,राज किशोर झा, प्रभात धवन, अजय कुमार सिंह,शंकर शरण आर्य, चंदा मिश्र, गदाधर प्रसाद सिंह ने भी अपनी रचनाओं का पाठ किया।
मंच का संचालन कवि योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद–ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने कि
कौशलेन्द्र पांडेय
संपादक