पटना से कौशलेन्द्र पराशर,
पटना, ३० अक्टूबर। “सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसबा से मोरे प्राण बसे हिम खोह रे बटोहिया” जैसी प्राण–प्रवाही और मर्म–स्पर्शी रचना के अमर रचयिता बाबू रघुवीर नारायण भोजपुरी और हिंदी के महान कवि हीं नहीं एक वलिदानी देश–भक्त और स्वतंत्रता सेनानी भी थे। ‘बटोहिया–गीत‘ से अत्यंत लोकप्रिय हुए इस कवि ने घूम–घूम कर देश में स्वतंत्रता का अलख–जगाया और यह गीत गा–गा कर, संपूर्ण भारत–वासियों को, विशेष कर भोजपुरी प्रदेश को, उसकी गौरवशाली प्राचीन संस्कृति और महानता का स्मरण दिलाया। पूर्वी–धुन पर रचित यह गीत अपने काल में बिहार और उत्तरप्रदेश के स्वतंत्रता–सेनानियों का ‘राष्ट्रीय–गीत‘ बन गया था। पूर्वी भारत में आज भी इसकी मान्यता राष्ट्रीय लोक गीत के रूप में है।
यह बातें बुधवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में, बाबू रघुवीर नारायण की १३६वीं जयंती पर आयोजित समारोह और कवि–सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, एक भी महान और लोकप्रिय रचना किसी व्यक्ति को साहित्य–संसार में अमर कर सकती है, बटोहिया गीत और बाबू रघुवीर नारायण इसके प्रज्वल उदाहरण हैं। आज के कवियों को यह विचार करना चाहिए कि, ख्याति पाने के लिए, “बहुत” लिखना आवश्यक है या ‘मूल्यवान‘ लिखना ?
बाबू रघुवीर नारायण की पौत्र–वधु उर्मिला नारायण ने उनके जीवन से जुड़े महत्त्वपूर्ण प्रसंगों की विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि, भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में राष्ट्रीयता का भाव जगाने और देश की स्वतंत्रता के लिए जागरण में, ‘बटोहिया–गीत‘ की बड़ी भूमिका रही। इस गीत की चर्चा भारत की सीमाओं से आगे निकल कर मौरिशस, सूरिणाम, फ़ीजी, त्रिनि
अतिथियों का स्वागत करते हुए, सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेंद्रनाथ गुप्त ने कहा कि, रघुवीर नारायण आध्यात्मिक–दृष्टि रखनेवाले करुण भाव के कवि थे। उन्होंने अंग्रेज़ी, हिंदी और भोजपुरी में अत्यंत मार्मिक गीत लिखे। कम लिखे, पर जो कुछ लिखा उसी से अमर हो गए। अपने जीवन के अंतिम दिनों को उन्होंने एक संन्यासी की तरह जिया। उनके गीत प्रवासी भारतीयों को अभी भी ऊर्जा देते हैं। वरिष्ठ पत्रकार ज्ञान वर्धन मिश्र, डा बी एन विश्वकर्मा, डा नागेश्वर प्रसाद यादव तथा सरस्वती देवी ने भी अपने उद्गार व्यक्त किए।
इस अवसर पर आयोजित कवि–सम्मेलन का आरंभ कवि जय प्रकाश पुजारी की वाणी–वंदना से हुआ। वरिष्ठ कवि घनश्याम ने कहा “क्षितिज की गोद में बैठा भकाभक लाल है सूरज/ अंधेरे के लिए जैसे कोई भूचाल है सूरज/ सहज समभाव से सस्नेह सबकी सुधी लिया करता/ जगत कल्याण हित तत्पर सतत भूपाल है सूरज”। सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने भोजपुरी में अपने गीत को स्वर देते हुए कहा – “माथा के मोरी, हिमालय की चोटी/ संगम के गमगम बा पानी/ गरबा में सोहेला नदियाँ के गजरा/ केसर के बिंदिया लुभानी हो रामा“।
व्यंग्य और ओज के कवि ओम् प्रकाश पाण्डेय ‘प्रकाश‘ का कहना था कि, “मुल्क की गर्दनपर/ सत्तर सालों से चलती भोठर रेती/ आका ! अब रोक दो/ जनतंत्र का सबसे बड़ा फ़रेब/ फ़रेबियों का डाका अब रोक दो “। कवयित्री डा सविता मिश्र मागधी ने भैय्या–दूज को ध्यान में रख कर रचना पढ़ी– “थे पिता तुल्य, मेरे अग्रज मेरे भाई, मेरे भ्राता/ जब भी भैया को याद करें/ नेत्र नीर से भर जाता।“।
पोलैंड से आए प्रवासी भारतीय कवि अमित श्रीदान सिंह ने कृष्ण की राधा को स्मरण करते हुए, मधुर छंद पढ़ा कि – “बोले मोज़ राधा प्रेम पियासी/ ज्यूँ दिखे कान्हा मन परवासी“। डा सुधा सिन्हा ने विरह की इन पंक्तियों से श्रोताओं का मन जीत लिया कि – “दिलो–जिगर में वो समाने लगे हैं/ मुझे इतना क्यों याद आने लगे हैं।“
कवि बच्चा ठाकुर, अमियनाथ चटर्जी, पं गणेश झा, अभिलाषा कुमारी, डा आर प्रवेश, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, सच्चिदानंद सिन्हा, प्रणव पराग, बाँके बिहारी साव, रवींद्र सिंह आदि कवियों ने अपनी कविताएँ पढीं। मंच का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद–ज्ञापन कृष्णरंजन सिंह ने किया।