लखनऊ: उत्तर प्रदेश में 2018 में करीब आए समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) और बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samajwa Party) की राहें 2020 के खत्म होते-होते धुर विरोध के अपने पुराने इतिहास पर लौटती दिख रही हैं. इस बार सपा प्रमुख अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने सियासी मास्टर स्ट्रोक से कदम बढ़ाया है. राज्यसभा चुनाव (Rajya Sabha Election) में बसपा प्रत्याशी के खिलाफ ऐन वक्त निर्दलीय प्रत्याशी प्रकाश बजाज उतारा गया, जिसे सपा समर्थित बताया जा रहा है. वहीं अब बसपा प्रत्याशी के 5 प्रस्तावक विधायकों ने अपने नाम वापस ले लिए हैं और इस समय कुल 6 बसपा विधायक सपा के पाले में दिखाई दे रहे हैं. इस पूरे घटनाक्रम से साफ है कि बसपा टूटने की कगार पर है. वैसे बसपा की ये टूट पहली बार नहीं है. लेकिन सपा से उसे हमेशा बड़ी चोट मिलती रही है.
ताजा घटनाक्रम ने 17 साल पहले की उस घटना की याद लोगों के जेहन में ताजा कर दी, जब सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) ने कम विधायक होने के बावजूद बसपा के 13 विधायक तोड़े थे और भाजपा के अप्रत्यक्ष समर्थन से सरकार बना ली थी. मामला हाईकोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था और आखिरकार बसपा के विधायकों की सदस्यता रद्द हुई थी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और सपा सरकार ने करीब-करीब अपना कार्यकाल पूरा कर लिया था. फिर 2007 में मायावती ने बहुमत की सरकार बनाई थी.
इस तरह BJP और BSP की राहें हुईं जुदा- जानें पूरी कहानी
दरअसल 2002 के विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला था. समाजवादी पार्टी को 143, बीएसपी को 98, बीजेपी को 88, कांग्रेस को 25 और अजित सिंह की रालोद को 14 सीटें मिली थीं. चुनाव परिणाम आने के बाद किसी की सरकार नहीं बनने की स्थिति बनी और यूपी में राष्ट्रपति शासन लगा. इसके बाद बीजेपी ने सरकार बनाने की कवायद की और 3 मई 2002 को बीजेपी और रालोद के समर्थन ने बसपा की मायावती मुख्यमंत्री बन गईं. लेकिन 2003 आते-आते स्थितियां बदल गईं. निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह पर आतंकवाद निरोधक अधिनियम (POTA) के तहत केस लगा. वो पहले मायावती सरकार बर्खास्त करने की मांग कर चुके थे. बीजेपी ने पोटा हटाने की मांग की लेकिन मायावती ने इसे ठुकरा दिया. इसके बाद ताज कॉरिडोर मामला सामने आया. इसमें यूपी और केंद्र आमने-सामने आ गए. केंद्रीय पर्यटन मंत्री जगमोहन ने यूपी सरकार को जिम्मेदार ठहरा दिया, तो मायावती ने जगमोहन का इस्तीफा मांग लिया.
केसरी नाथ त्रिपाठी के रोल पर उठे थे सवाल
स्थितियां और मुश्किल हुईं और आखिरकार मायावती ने 26 अगस्त 2003 को कैबिनेट बैठक बुलाकर विधानसभा भंग करने की सिफारिश के साथ राज्यपाल को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया. मायावती के इस कदम से हैरान भाजपा विधायकों ने लालजी टंडन के नेतृत्व में आनन-फानन में राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री से मुलाकात कर उन्हें सरकार से समर्थन वापस लेने की जानकारी दी. लेकिन राज्यपाल ने यह कहते हुए विधानसभा भंग नहीं की कि उनको मायावती सरकार से समर्थन वापसी का भाजपा विधायकों का पत्र, कैबिनेट के विधानसभा भंग करने के प्रस्ताव से पहले ही मिला.
इस तरह लटकता गया फैसला
इसके बाद तस्वीर में मुलायम सिंह यादव उभरे. 26 अगस्त को मुलायम सिंह ने सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया. 27 अगस्त को बसपा के 13 विधायकों ने राज्यपाल से मुलाकात कर मुलायम को समर्थन का पत्र सौंप दिया. बसपा ने इसका विरोध किया और दल-बदल निरोधक क़ानून और संविधान की 10वीं अनुसूची का उल्लंघन कहा और सदस्यता खारिज करने की मांग की. बसपा की तरफ से विधानसभा अध्यक्ष केसरी त्रिपाठी को एक याचिका सौंपी गई, लेकिन स्पीकर ने इस पर कोई फ़ैसला नहीं लिया.
मुलायम ने 29 अगस्त, 2003 को ली शपथ
उधर, बसपा के 13 बागी विधायकों का समर्थन मिलते ही मुलायम सिंह ने 210 विधायकों की सूची राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री को सौंप दी और बिना समय गंवाए शास्त्री ने उन्हें शपथ ग्रहण का न्योता दे दिया. राज्यपाल ने 29 अगस्त, 2003 को मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी. उन्हें बहुमत सिद्ध करने के लिए 2 हफ़्ते का समय दिया गया. मुलायम सिंह यादव ने विधानसभा में बहुमत साबित कर दिया. मुलायम की इस सरकार में राष्ट्रीय लोकदल, कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी के अलावा निर्दलीय और छोटी पार्टियों के 19 विधायक शामिल थे. इसके अलावा उन्हें कांग्रेस और सीपीएम ने बाहर से समर्थन दिया. इस बीच, बीएसपी के 37 विधायकों ने 6 सितंबर को विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी से मुलाकात कर उन्हें अलग दल के रूप में मान्यता देने की मांग की. केसरीनाथ त्रिपाठी ने उसी शाम इस विभाजन को मान्यता दे दी, जबकि 13 विधायकों के दलबदल मामले में वो अब तक कोई फ़ैसला नहीं कर पाए थे. इसके बाद पूरा मामला कोर्ट में गया. बसपा ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में एक रिट याचिका दायर कर विधानसभा अध्यक्ष के फ़ैसले को चुनौती दी.
2007 में सुप्रीम कोर्ट से आया फैसला, मगर…
हाईकोर्ट ने 12 मार्च 2006 को अपना निर्णय सुनाया. अदालत ने बसपा से 37 विधायकों के विभाजन को अलग दल के रूप में मान्यता देने के विधानसभा अध्यक्ष के फ़ैसले को खारिज कर दिया. इसके साथ ही हाईकोर्ट ने विधानसभा अध्यक्ष से 13 विधायकों की सदस्यता पर पुनः फ़ैसला करने का आग्रह किया. हाईकोर्ट के इस निर्णय को दोनों ही पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. सुप्रीम कोर्ट ने 14 फरवरी, 2007 को अपने फ़ैसले में बसपा बीएसपी में हुई टूट को अवैध बताते हुए 13 बागी विधायकों की सदस्यता खारिज कर दी. लेकिन तब तक 2007 के विधानसभा चुनाव आ गए थे.
निखिल दुबे.