प्रधान संपादक -जितेन्द्र कुमार सिन्हा, 26 मई ::दुनिया में भारत एवं भारतीय लोकतंत्र का गौरव एवं सम्मान दिनों दिन बढ़ रहा है। वहीं भारत में विपक्षी पार्टियाँ लोकतंत्र के इतिहास की महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक घटना का बहिष्कार करते हुए भारतीय लोकतांत्रिक उजालों पर कालिख पोतने का प्रयास कर रहा है। भारत के विपक्षी दलों को 9 वर्षों से केवल देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विरोध करने के सिवाय कुछ नहीं बचा है। अब कोई मुद्दा नहीं बचा तो नई संसद भवन के उद्घाटन पर प्रश्न चिन्ह लगाना शुरु कर दिया है। विपक्षी पार्टियां यहां तक की माननीय सर्वोच्च न्यायालय को भी मजाक बना दिया है। बात पीछे सर्वोच्च न्यायालय की दरवाजा पर दस्तक दे देते हैं।अब देखा जाय तो विपक्षी पार्टियां नरेन्द्र मोदी का विरोध करते करते देश का विरोध भी करना शुरु कर दिया है। नई संसद भवन करीब ढाई साल में बनकर तैयार हो गई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसका शिलान्यास किया था और अब 28 मई को उद्घाटन होना है। विपक्षी दलों ने इस बात पर अब सियासत शुरू कर दिया है कि नए संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से कराया जाय। वहीं भाजपा का कहना है कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी संसद भवन की इमारतों का उद्घाटन कर सकते हैं तो फिर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी क्यों नहीं कर सकते हैं।विपक्ष अपनी विवेक एवं परिपक्व सोच का परिचय देने की बजाय संकीर्ण, बिखरावमूलक एवं विनाशकारी राजनीति का परिचय दे रहा है। जबकि भारत के लिये यह सौभाग्य की बात है कि नरेन्द्र मोदी जैसा महानायक प्रधानमंत्री के रूप में मिला है। नरेन्द्र मोदी की लगातार बढ़ती साख एवं सम्मान को देखते हुए विपक्षी पार्टियाँ पूरी तरह बौखला गया है और अब नई संसद भवन के उद्घाटन का विरोध करने लगा है।प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 10 दिसंबर 2020 को नए संसद भवन के निर्माण कार्य का शिलान्यास किया था। इस कार्य के लिए राज्यसभा और लोकसभा ने 5 अगस्त 2019 को आग्रह किया था। इसकी लागत 861 करोड़ रुपये आंकी गई थी लेकिन बाद में इसके निर्माण की कीमत 1,200 करोड़ रुपये तक पहुंच गई।भाजपा नई संसद भवन के उद्घाटन समारोह को देश के लिए गौरव का पल मानते हुए जश्न मना रहा है। उद्घाटन कार्यक्रम को लेकर 15 दल भाजपा के समर्थन में खड़े हैं। वहीं कांग्रेस ने 20 अन्य विपक्षी दलों के साथ नरेन्द्र मोदी से नई संसद भवन के उद्घाटन का विरोध करते हुए कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया है। उनका कहना है कि यह लोकतंत्रिक तरीका नहीं है, भाजपा राष्ट्रपति द्रौपदी से उद्घाटन न कराकर उनके पद का अपमान कर रही है।विपक्षी दलों ने इस पूरे मामले को अब राजनीतिक रंग दे दिया है। देश के राजनीतिक दलों में इस मुद्दे को लेकर दो फाड़ हो गया। अब मामला एनडीए बनाम यूपीए तो है ही लेकिन कुछ विपक्षी दल भी भाजपा के साथ जा खड़े हो गये हैं।कांग्रेस पार्टी के नेता अब संसद भवन में रखें जाने वाले ब्रिटिश साम्राज्यवादी राजदंड के प्रतिष्ठापन का विरोध भी करना शुरु कर दिया है, क्योंकि लॉर्ड माउंटबेटन के ने (14 अगस्त 1947) यह राजदंड मनोनीत कांग्रेसी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को हस्तांतरित किया था, जो राजशाही का प्रतीक था।ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार, भारत के अंतिम वायसराय ने पंडित नेहरू से प्रधानमंत्री बनने से कुछ ही दिन पूर्व पूछा था कि आप देश की आजादी को किसी खास प्रतीक के जरिए पाना चाहते हैं? ऐसी स्थिति में पंडित नेहरू ने मद्रास के राजगोपालाचारी से जानकारी ली। राजगोपालाचारी ने उन्हें राजदंड भेंट करने वाली तमिल परंपरा के बारे में बताया जिसमें राज्य का महायाजक (राजगुरु) नए राजा को सत्ता ग्रहण करने पर एक राजदंड भेंट करता है।अब यह विचारणीय है कि सेंगल (तमिल भाषा में राजदंड) की उत्पत्ति कैसे हुई? करीब नौ शताब्दी पूर्व तमिल प्रांत में राजेंद्र चोला नामक राजा हुआ था। उसने पाटलिपुत्र के पालवंश के सम्राट महिपाल को हराया था। पांडयन वंश से हारने के पूर्व तक चोला दरबार में नए राजा को एक सोने की छड़ी दी जाती रही। उसे राजदंड कहते थे।राजगोपालाचारी ने कहा कि “आपको प्रधानमंत्री बनाते समय माउंटबेटन आपको ऐसा ही राजदंड सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में दे सकते हैं।” इस बात पर पंडित नेहरू राजी हो गए।