सियाराम मिश्रा, वरिष्ठ संपादक /’भाजपा हराओ मिशन’ को आगे बढ़ाते हुए 22 नवंबर को लखनऊ में किसानों की पूर्व निर्धारित महापंचायत आयोजित हुई और इसमें हिस्सेदारी के लिए बड़ी संख्या में किसान पहुंचे। अब तक दिल्ली की सीमाओं पर धरने और विरोध प्रदर्शन के साथ-साथ किसान कई जगहों पर महापंचायत करते रहे हैं और हर महापंचायत से कृषि कानून वापसी की मांग जोर-शोर से उठाई जाती रही। लेकिन लखनऊ की ये महापंचायत इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि यह प्रधानमंत्री की कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद हुई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो शुक्रवार को ही किसानों से कहा था कि अपने-अपने घर चले जाएं और उन्हें शायद उम्मीद रही होगी कि किसान उनकी बात पर भरोसा करते हुए लौट भी जाएंगे। लेकिन पिछले एक साल में किसानों ने सरकार की संवेदनहीनता, हठधर्मिता और मनमानी की खूब मार खाई है। किसान समझ रहे हैं कि प्रधानमंत्री ने जिन शब्दों के साथ कानून वापसी का ऐलान किया, उन शब्दों के असल मायने क्या हैं। इसलिए किसानों ने आंदोलन खत्म नहीं किया, बल्कि सोमवार की महापंचायत भी आयोजित की। ताकि वो देश को एक ओर अपने आंदोलन की जीवटता का एहसास करा सकें और दूसरी ओर न्याय के लिए संघर्ष के रास्ते पर डटे रहने की मिसाल भी पेश कर सकें।लखनऊ की इस महापंचायत के ऐतिहासिक संदर्भ भी हैं। 1920 में अवध में जमींदारों द्वारा शोषण व उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष के लिए ‘किसान सभा’ गठित हुई थी। जिसके तहत शुरु हुए किसानों के आंदोलन को बाबा रामचंद्र ने धार दी और ब्रिटिश हुकूमत को आंदोलन के दबाव में अवध रेंट एक्ट-1868 में संशोधन करना पड़ा, जिसके द्वारा सभी काश्तकारों को जमीन पर मालिकाना हक मिला। इसके बाद नवंबर, 1921 में लखनऊ के मलिहाबाद से ‘एका’ आंदोलन शुरू हुआ। मदारी पासी व ख़्वाजा अहमद के नेतृत्व में यह आंदोलन सामंती तथा तानाशाही हुकूमत के विरुद्ध किसानों की स्वतंत्र शक्ति का प्रदर्शन था। बीसवीं शताब्दी के चौथे और पांचवें दशक में भी देश के अनेक भागों में जुझारू किसान आंदोलन फूट पड़े, जिनके दबाव में स्वाधीनता के तुरंत बाद कांग्रेस सरकार को जमींदारी एवं जागीरदारी प्रथा के खात्मे के कदम उठाने पड़े। आज उसी अवध की जमीन पर सौ साल बाद फिर से किसानों का संघर्ष और उनके संगठन की ताकत का अहसास हुक्मरानों को हो रहा है। आज के दौर में ज़मींदारों की जगह उद्योगपतियों ने ले ली है, जिनके साथ सरकार की सांठ-गांठ है। किसान इस पूंजीवादी गठजोड़ के खिलाफ खड़े होकर किसानी के साथ-साथ लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।लखनऊ की महापंचायत में संयुक्त किसान मोर्चा ने सरकार के सामने अपनी छह प्रमुख मांगें रखी हैं- १- एमएसपी को लेकर क़ानूनी गारंटी दी जाए।२- बिजली संशोधन विधेयक को वापस लिया जाए। ३- पराली जलाने पर जुर्माने के प्रावधानों को ख़त्म किया जाए। ४- आंदोलन के दौरान किसानों पर दर्ज हुए मुक़दमों को वापस लिया जाए। ५- केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी को मंत्रिमंडल से बर्खास्त किया जाए। ६- आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों को मुआवजा दिया जाए और सिंधु बॉर्डर पर उनकी याद में स्मारक बनाने के लिए ज़मीन दी जाए। किसानों ने ये मांगें पहले भी एक पत्र के जरिए मोदी सरकार के सामने रखी हैं। जब कानून वापसी पर फैसला लेने में सरकार ने एक साल का लंबा वक्त लगा दिया तो इन छह मांगों में से कितनी मांगें सरकार मानती है और इन पर फैसला लेने के लिए कितना वक्त लगाती है, यह भी चुनावी नफ़ा-नुकसान देख कर ही तय होगा। अगर भाजपा को यह अंदेशा होता है कि किसानों से अब भी नुकसान की गुंजाइश है, तो मुमकिन है ये छह मांगें पूरी होने का आश्वासन मिल जाए और अगर कहीं ये उम्मीद भाजपा को बंधती है कि किसानों की नाराज़गी के बावजूद उप्र चुनाव में भाजपा अच्छा प्रदर्शन कर लेगी, तो फिर इन मांगों के पूरा होने पर संशय है। वैसे भी अभी जिस तरह प्रधानमंत्री ने कानून वापसी की घोषणा की है, उससे भाजपा के कई नेता और सरकार समर्थक पत्रकार खफ़ा हैं। भाजपा नेता उमा भारती ने साफ कहा कि ‘कानूनों की वापसी करते समय जो उन्होंने कहा, वह मेरे जैसे लोगों को बहुत व्यथित कर गया’। कुछ राष्ट्रवादी (गोदी) पत्रकारों ने भी यह व्यथा प्रकट की है कि साल भर तक वे जिस कानून के समर्थन में जनता के सामने बातें रखते रहे, अब किस तरह उन्हें नकारेंगे। कृषि कानूनों के प्रबल समर्थक एक कृषि अर्थशास्त्री ने खीझ कर पूछा है कि प्रधानमंत्री का यह कदम टैक्टिकल रिट्रीट है या आत्मसमर्पण ! इन महाशय को दर्द है कि अब शायद लंबे समय तक भविष्य की कोई भी सरकार कृषि क्षेत्र में ‘सुधार’ के कदम उठाने की हिम्मत न जुटा सके ! कानून वापसी पर अलग-अलग शब्दों में व्यक्त हो रही यह पीड़ा दरअसल कार्पोरेट क्षेत्र की नाराज़गी को ही अभिव्यक्त कर रही है और प्रधानमंत्री मोदी ने कॉर्पोरेट आकाओं को संदेश देने के लिए ही शायद यह कहा कि वे अब भी सैद्धांतिक तौर पर मजबूती से कृषि कानूनों के पक्ष में खड़े हैं।एक ओर किसानों के हितों का दावा, दूसरी ओर कार्पोरेट जगत को खुश करने वाली जुबान बोलने से सरकार के प्रति अविश्वास उपजना स्वाभाविक है। इसलिए फिलहाल संयुक्त किसान मोर्चा ने तय किया है कि अभी आंदोलन जारी रखा जाएगा। देखना होगा कि भाजपा दो नावों पर सवार होकर उप्र चुनाव में पार पा सकती है या फिर ‘दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम’ वाली हालत भाजपा की होती है।