कंसल्टिंग एडिटर-सोमा राजहंस/भारत के कुछ राज्यों में दो से अधिक बच्चों वाले व्यक्तियों को स्थानीय चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं है। इस कॉलम से पता चलता है कि इस प्रकार के कानून के कारण ऐसे राज्यों में सामान्य जनता के बीच प्रजनन दर काफी प्रभावित हुई है, वहीं उच्च जाति के परिवारों में जन्म के समय का लैंगिक अनुपात बिगड़ गया है। जाहिर है कि भारतीयों में स्थानीय नेतृत्व की मजबूत आकांक्षाएं हैं, और राजनीतिक सत्ता तक पहुंच को बदलने वाली नीतियां सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित कर सकती हैं।भारत दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है, और दुनिया में सबसे गरीब लोगों में से एक तिहाई आबादी यानि 1.2 अरब का बसेरा है। इसलिए, प्रजनन दर में गिरावट लाना हमेशा से भारत में नीति-निर्माताओं की प्राथमिकता रही है। इसी को ध्यान में रखते हुए, 1992 में राजस्थान से शुरू होकर 11 भारतीय राज्यों ने ‘दो बच्चे की सीमा’ लागू की, जिसके तहत दो से अधिक बच्चों वाले लोगों को गांव, ब्लॉक और जिला स्तर पर पंचायत चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं है। इनमें से चार राज्यों (हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) ने अंततः 2005-06 में इस कानून को निरस्त कर दिया, लेकिन यह अन्य सात राज्यों (राजस्थान, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, गुजरात और बिहार) में अभी भी प्रभावी है। इन सभी राज्यों में, कानून की घोषणा के बाद एक साल की छूट अवधि दी गई थी, जिसके दौरान परिवारों में अतिरिक्त बच्चे हो सकते हैं (उनके बच्चों की कुल संख्या दो से अधिक हो सकती है) और फिर भी वे पंचायत चुनाव के लिए पात्र रह सकते हैं। हालांकि, छूट अवधि के अंत तक दो या दो से अधिक बच्चों वाले परिवार, उसके बाद एक अतिरिक्त बच्चा होने के कारण अयोग्यता हो गये। छूट अवधि के अंत तक दो से कम बच्चों वाले परिवारों को चुनाव के लिए पात्र रहने के लिए बाद में अधिकतम दो बच्चों तक सीमित कर दिया गया था।दो बच्चों की सीमा बड़ी संख्या में भारतीय नागरिकों को प्रभावित करती है। सात राज्यों में जहां 1992-2006 के दौरान दो बच्चों की सीमा लागू थी, उनमें 2004 में पंचायत प्रणाली के सभी तीन स्तरों में कुल 912,597 सीटें थीं। अगर प्रत्येक सीट के लिए तीन संभावित उम्मीदवार और राज्य की 30% आबादी को प्रजनन-योग्य (लगभग 10 करोड़ बीस लाख लोग) आयु का मानते हैं तो इन राज्यों में प्रजनन-योग्य आबादी में से 2.7% लोग सीधे इस कानून से प्रभावित हुए। इस प्रकार से, इस कानून के प्रभाव का विश्लेषण नीति के दृष्टिकोण से अत्यंत प्रासंगिक है।राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) और जिला स्तरीय घरेलू सर्वेक्षण (डीएलएचएस) के डेटा का उपयोग करते हुए, हम 1973-2006 की अवधि में उन सात “उपचार” राज्यों3 जहां कानून शुरू में लागू किया गया था और ग्यारह “नियंत्रण” राज्यों4 जहां कानून कभी भी अधिनियमित नहीं किया गया था, में से 511,542 महिलाओं और 1,261,711 जन्मों के यादृच्छिक नमूने के प्रजनन व्यवहार की जांच करते हैं (अनुकृति और चक्रवर्ती 2014)5। हम कानून की घोषणा से पहले और बाद में ‘उपचार’ राज्यों में महिलाओं के प्रजनन परिणामों की तुलना ‘नियंत्रण’ राज्यों में समान महिलाओं के सापेक्ष करते हैं। हमारे नमूने में कानून की घोषणा के बाद की अवधि महाराष्ट्र के लिए चार साल से लेकर राजस्थान और उड़ीसा के लिए 13 साल तक है।हम पाते हैं कि, औसतन, इस कानून की घोषणा से पहले ‘उपचार’ राज्यों में रह रही दो बच्चों वाली महिलाओं की तीसरे बच्चे के होने की संभावना इस कानून की घोषणा के बाद6 6.25% कम है। हालांकि, यह गिरावट सभी घोषणा के बाद के वर्षों में एक-समान नहीं है। छूट अवधि के दौरान, हम दो से अधिक जन्मों की संभावना में 17.9 प्रतिशत की वृद्धि देखते हैं, जो बाद के वर्षों में घट जाती है। यह पैटर्न बताता है कि परिवार छूट की अवधि का लाभ उठाने के लिए सीमांत प्रजनन क्षमता को समायोजित कर रहे हैं, और इस प्रकार से वे भविष्य के चुनावों के लिए पात्र बने हुए हैं।कानून की घोषणा से पहले जिन महिलाओं के एक बच्चा था, उनमे भी घोषणा के बाद दूसरी संतान के जन्म की संभावना में उल्लेखनीय गिरावट दिखाती हैं (पूर्व-घोषणा वर्षों और ‘नियंत्रण’ राज्यों के सापेक्ष)। यह कमी संभवतः दूसरी संतान के जन्म में देरी को दर्शाती है। चूंकि ये एक बच्चे वाले परिवार भविष्य के चुनावों के लिए पात्र रहना चाहते हैं तो वे एक साल की छूट अवधि के बीत जाने पर तीसरे बच्चे को जन्म नहीं दे सकते हैं, अतः उनकी बेटा होने की प्राथमिकता पर्याप्त रूप से मजबूत होने की स्थिति में उनके द्वारा दूसरी संतान के जन्म में लिंग-चयन करने की अधिक संभावना हो सकती है। इसके परिणामस्वरूप, यह सीमा उनके पहले और दूसरे बच्चे के जन्म (पूर्ण प्रजनन दर में कमी के साथ-साथ) के बीच के अंतर को बढ़ा सकती है । यह जांचने के लिए, हमने दूसरे जन्म के लिंगानुपात पर दो बच्चों की सीमा के प्रभाव की जांच की।भारत तथा अन्य विकासशील देशों में बेटियों की तुलना में बेटों के लिए उच्च सामाजिक प्राथमिकता के चलते प्रजनन दर में गिरावट इस प्रकार दिखती है कि लिंग-अनुपात में पुरुष-पक्षपाती रवैया अधिक है (अनुकृति 2014, एबेनस्टीन 2010, जयचंद्रन 2014)। इसलिए हम यह भी जांच करते हैं कि क्या दो बच्चों की सीमा परिवारों के लिंग-चयन व्यवहार में कोई बदलाव लाती है। इस तथ्य को उजागर करते हुए कि भारत में पहले जन्मी संतान का लिंग (स्त्री/पुरुष) संभाव्य रूप से यादृच्छिक और बहिर्जात होता है, और अच्छी तरह से प्रमाणित यह निष्कर्ष कि खासकर ऊपरी- जातियों (भलोत्रा और कोक्रेन 2010) में यदि पहली संतान लड़की है तो दूसरी संतान के लड़के होने की संभावना अधिक है, हम जांच करते हैं कि दो बच्चों की सीमा किस प्रकार से पहली संतान के लिंग और जाति के आधार पर दूसरी संतान के लिंग-अनुपात को प्रभावित करती है।हम पाते हैं कि यदि ‘नियंत्रण’ राज्यों से तुलना की जाए तो ‘उपचार’ राज्यों में रहने वाले उच्च जाति के परिवारों में (जिनकी पहली संतान लड़का है, उनकी तुलना में) पहली संतान लड़की है तो उनके यहाँ कानून की घोषणा से पहले की तुलना में कानून की घोषणा के बाद दूसरी संतान के पुरुष होने की संभावना 3.07 प्रतिशत अधिक है। यह दर्शाता है कि निर्धारित सीमा के परिणामस्वरूप इन परिवारों में दूसरी संतान के रूप में पुरुष के होने की संभावना में चार गुना से अधिक की वृद्धि होती है। हालाँकि, उच्च जाति के परिवारों में यदि इस कानून की घोषणा के पूर्व पहली संतान लड़का है तो दूसरी संतान के लिंगानुपात में कोई बदलाव नहीं दिखता है। पहली संतान के किसी भी लिंग (स्त्री/पुरुष) का होने के बावजूद, हम निचली जाति के परिवारों में दूसरी संतान के लिंगानुपात पर कोई प्रभाव नहीं पाते हैं। इन निष्कर्षों से पता चलता है कि कानून उच्च जाति के परिवारों को दूसरी संतान हेतु लिंग-चयन बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि राजनीतिक पद के लिए भविष्य की पात्रता का त्याग किए बिना उनका कम से कम एक बेटा हो।हमारी जानकारी में, यह पहला ऐसा उदाहरण है जहां एक बड़े विकासशील देश में राजनीतिक सत्ता तक संभावित पहुंच पर प्रतिबंध का इतना गहरा जनसांख्यिकीय प्रभाव पड़ा है। हमारे परिणामों का अर्थ यह है कि पिछले अध्ययनों (उदाहरण, रे 2006, बर्नार्ड तथा अन्य 2011) में अक्सर जो माना गया है या देखा गया है, उसके विपरीत, भारतीय नागरिक राजनीतिक पद धारण करके अपने जीवन में बदलाव लाने की प्रबल इच्छा रखते हैं। हमारे निष्कर्ष यह भी सुझाव देते हैं कि स्थानीय नेतृत्व पदों तक संभावित पहुंच के लिए प्रोत्साहन को बदलने वाली नीतियां सामाजिक परिवर्तन के लिए आशाजनक मार्ग हो सकती हैं। दुर्भाग्य से, लिंग अनुपात पर प्रतिकूल प्रभाव यह भी दर्शाते हैं कि भारतीय नीति-निर्माता जनसंख्या कार्यक्रमों को डिजाइन करते समय स्त्री संतान के प्रति व्याप्त सामाजिक पूर्वाग्रह की अनदेखी करते रहे हैं। इसलिए, नीतिगत पहलों को लिंग-संबंधी निहितार्थों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाना चाहिए ताकि अनपेक्षित परिणामों को रोका जा सके, जैसे कि हमने रेखांकित किया हैं।