जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 12 सितम्बर ::सिद्धार्थ, बुद्ध, तथागत, शाक्य जैसे नामों से अभिहित होने वाले महान विचारक, दार्शनिक, तत्वदृष्टा तथा नये विचार के प्रणेता महात्मा बुद्ध के संबंध में एक लेख में उनके विचारों के संबंध में कुछ प्रतिपादित कर पाना अत्यंत कठिन है। महात्मा बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु नगर (जिसे तिलौरा कोट भी कहते हैं) से कुछ दूरी पर स्थित लुम्बनी नामक स्थान में हुआ था जो रूम्मीनदेई के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थान नेपाल की तराई में नौतनवा स्टेशन से आठ मील पश्चिम पड़ता है।सिद्धार्थ गौतम ने जब प्रवज्या ली थी तब यह कौशल राज्य में था। वैसे शाक्य गणतंत्र पहले बज्जी संघ के भी अधीन था।कपिलवस्तु मे सुद्धोदन नाम से एक समृद्ध कृषकपति रहते थे। उनकी प्रजापति और मायादेवी नाम की दो पत्नियाँ थी। माया देवी से एक पुत्र उत्पन्न हुआ था जिसका नाम सिद्धार्थ रखा गया था। ‘‘होनहार विरवान के होत चीकने पात’’ होनहार पौधों के बिरवे भी अच्छे होते है उक्तियों को चरितार्थ करते हुए बालक जन्म से प्रभा संपन्न था। किदवंती है कि जन्म लेते हुए उक्त विलक्षण बालक ने धरती पर सात पग नापे थे। ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता पंडितों ने ‘‘ज्ञानं परम् वा पृथ्वी श्रीयं वा’’ की भविष्यवाणी की थी।महात्मा बुद्ध के जन्मकाल के संबंध में कई मत है। लेकिन सर्वमान्य मत के अनुसार उनका जन्म ईशा से 563 वर्ष पूर्व और उनका महापरिनिर्वाण 483 ई0 पूर्व हुआ था। बालक सिद्धार्थ ही बुद्धतत्व प्राप्त कर भगवान बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। जन्म के साथ ही, उनकी माता माया देवी का निधन हो गया था। ऐसे में शिशु सिद्धार्थ का पालन पोषण उनकी मौसी और विमाता प्रजापति गौतमी ने किया। सिद्धार्थ वचपन से ही संसार से विरक्त और अपनी वाटिका में विचार मग्न बैठे रहते थे जब उनके पिता सुद्धोदन ने अपने पुत्र को संसार के प्रति विरक्त भाव देखा तो उन्होंने उनका विवाह अपने पड़ोसी कोलिगण की पुत्री भद्रा कपिलायनी (यशोधरा) से सम्पन्न कराया। यशोधरा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम राहुल रखा गया। राहुल के उत्पन्न होते ही, बुद्ध के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ ‘‘राहुल जातो बंधनम जायते’’। राहुल के उत्पन्न होने से सांसारिक बंधन बढ़ गये।एक दिन नगर भ्रमण के दौरान तथागत ने वृद्ध, रोगी और मृत व्यक्तियों को देखा। मनुष्य को दुखी होने के कारणों को जानने और ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक रात के सन्नाटे में उन्होंने अपने राज परिवार सुख साधन सब छोड़ दिये। भगवान बुद्ध ने कहा था- ‘‘सब्वम दुखःम्’’ (सभी दुख में है)।बुद्ध के जीवनवृतांत की जानकारी के लिए पांच आधार ग्रंथ हमें उपलब्ध होते हैं। वे हैं- महावस्त्यु, ललितविस्टा, अभिनिष्क्रमणसुत्र, जातकठ्ट-कथा और बुद्ध चरित्र। इन पुस्तकों के आधार पर जो ज्ञान मिलता है उसके अनुसार, सिद्धार्थ, कपिलवस्तु से वैशाली- राजगृह होते हुए गया और फिर उरूवेला पहुंचे थे। बिहार के डरूवेला में जो आज वोधगया है जहाँ उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था। वह ज्ञान इतना ही था कि दुःख है। दुख का कारण है। दुख का निरोध है और दुख के निरोध के उपाय है। छः वर्षो की कठिन तपस्या के बाद उक्त चार बातें उन्हें प्रत्यक्ष हुई थी।भारतीय ऋषि ज्ञान के दृष्टा होते थे। तथागत इन चार आर्य सत्यों के ऐसे ही एक दृष्टा थे। इन्हीं चार बातों को वौद्ध धर्म में चार आर्य सत्य कहा गया है।तपस्या के अंतिम दिनों में जब उनका पार्थिव शरीर अत्यंत क्षीणकाय हो चुका था तब उन्हें अन्न और जल ग्रहण करने की इच्छा प्रकट हुई थी। तपस्याकाल में ही सम्भवतः दैवीक प्रेरणा से उन्हें यह आभास हुआ था कि कुछ स्त्रियाँ, वीण के तारों के संबंध में बातें कर रही हैं जिसमें एक का कहना थ कि वीण के तारों को इतना मत छेड़ों की वह टूट जाय। दूसरे का कहना था कि उसे इता ढ़ीला भी मत रखें की उसे आवाज ही नहीं निकले, तीसरी का कहना था कि उसे न अधिक ढ़ीला रख जाय और न अधिक ऐंठा जाय। तथागत के जीवन में यहीं से मध्यम मार्ग का प्रादुर्भाव जिसका प्रतिपादन उन्होंने आगे किया। बुद्ध के चौथे आर्य सत्य में दुःख निवारण के उपायों की चर्चा की गई है जो आठ अंगों वाला है जिसे अष्ठांगिक मार्ग से भी जाना जाता है। इन आठों के नाम है- (1) सम्यक दृष्टि, (2) सम्यक सिंकल्प, (3) सम्यक वचन, (4) सम्यक कर्म, (5) सम्यक आजीविका, (6) सम्यक व्यायाम, (7) सम्यक स्मृति और (8) सम्यक समाधि। यही रास्ते हैं जिस पर चलने से ज्ञान प्राप्त होता है। इसे मध्यम मार्ग भी कहा जाता है। इसे मध्यम मार्ग इसलिए भी कहते हैं कि इसमें न कुछ शरीर को अधिक कष्ट परिश्रम करना है और न ही अधिक रागों में फसना है।अष्टांगिक मार्ग के तीन भाग होते है- कायिक, वाचिक और मानसिक। इसमें हिंसा चोरी और व्यभिचार शामिल है। मित्या भाषण, चुगलखोरी, अप्रिय भाषण और प्रलाप वाचिक है, तथा लाभ, प्रतिहिंसा, मिथ्याधरण मानसिक है। ये सारे बुरे कर्म है। इसके विपरित अर्थ वाले अच्छे कर्म है।(1) भले बुरे कर्म की पहचान कर लेना ही सम्यक दृष्टि है। (2) राग, हिंसा प्रतिहिंसा से रहित संकल्प को सम्यक संकल्प कहते हैं। (3) जिसमें मिथ्या, चुगलखोरी, अप्रिय कलह कारक वचन नहीं हो तथा सव्रथ सत्य एवं प्रिय वचन बोले जाते हो उसे सम्यक वचन कहते हैं। (4) हिंसा, चोरी और व्यभिचार रहित कर्म ही सम्यक कर्म कहलाता है। (5) जिस जीविकोर्पाजन में स्त्री, प्राणी, मांस मदिरा और विष का व्यापार नहीं होता हो उसे सम्यक आजीविका कहते है। (6) सम्यक व्यायाम में इन्द्रियों का संयम, बुरी भवनाओं का परित्याग, अच्छी भवनाओं के उत्पादन का प्रयत्न तथा उत्पन्न की गई अच्छी भवनाओं को सुरक्षित होने का प्राक्रम होता है। (7) सम्यक स्मृति उसे कहते हैं जिसमें सदा इस विषय का स्मरण रखा जाता है कि कायिक, वेदना, संज्ञा, चित्त और मन क्षण-क्षण नाश, जन्म तथा मलिन धर्म है उसी प्रकार (8) सम्यक समाधि उसे कहते हैं जिसमें मन के सम्पूर्ण विकास दूर होकर चित्त स्थिर हो जाय। योग सुत्र में ‘योगष्च चित वृतिनिरोधः’ कहा गया है।
भगवान बुद्ध को उरूवेला में जो जिन चार अर्ध सत्य का ज्ञान हुआ था उसका अति संक्षेप में यही सार है। इन विषयों को ठीक ठीक समझने वाला ही भीक्षु, कायानुपष्यवी, वेदनापष्ययी, चित्तानुपष्ययी और धर्मानुपष्ययी कहलाते थे। इसी तरह कायानुपष्यना, वेदनापुष्यना, चित्तानुपष्यना और धर्मानुपष्यना को ही वौद्ध धर्म में चार स्मृतिपष्यथन कहा गया है।
तथागत ने 46 वर्षों तक देश के विभिन्न भागों का परिभ्रमण किया था। चालीस वर्षों तक अपने दर्शन और ज्ञान का प्रचार किया था। उनके महापरिनिर्वाण के बाद विभिन्न तीन संगितियों में उनके वचनों को उनके अनुयायी के द्वारा तीन पिटाकों में संजोया गया, जिन्हें त्रिपिटक कहते हैं। वे हैं (1) विनयपिटक, (2) संयुक्तपिटक और (3) अभ्धिम्म। बौद्धों के मुख्य चार दर्शन है- (1) सर्वास्तिवाद वैभाषिक, (2) सौत्रान्तिक, (3) विज्ञानवाद योगाचार और (4) माध्यमिक शून्यवाद।
त्रिपिटक में पांच निकाय है- (1) दीघ निकाय, (2) भज्झिम निकाय, (3) संयुक्त निकाय, (4) अंगुकार निकाय, (5) खुद्दक निकाय।
दीघ निकाय में 34 सूत्र ग्रंथ होते हैं। मज्झिम निकाय में 152 सूत्र ग्रंथ गुम्फित हैं। संयुक्त निकाय में 54 संयुक्त हैं जो पांच भागों में बंटे है। अंगुकार निकाय एक विषाल ग्रंथ है जिसके 11 निपातों (समूहों) में 2,308 सूत्र दिया गया है। खुद्दक निकाय में भगवान बुद्ध के छोटे-छोटे उपदेश और छोटे-छोटे कथाओं का संग्रह है। यह ग्रंथ 15 भागों में विभक्त है जो हिन्दुओं के 18 पुराणों के स्थान की पूर्ति करता है।
विनयपिटक तीन भागों में विभक्त है- (1) सुक्त विभंग, (2) खंदक और (3) परिवार। सुक्त विभंग के दो भाग है -(1) पाराजित और (2) पाचित्यिक। खंदक भी दो भागों में बंटा है- (1)महावग्म और (2) चुल्लवग्गा। अभिधम्मपिटक सात भागों में बंटा है- (1) धम्म संगणि, (2) विभग, (3) धातुकथा, (4) पुग्गल पंज्जेचित्त, (5) कत्थवत्यु, (6) यमक और (7) पट्ठान ये संतों बौद्ध धर्म के दार्षनिक ग्रंथ है।
महात्मा बुद्ध के आर्युविज्ञान भी अपने चरमोत्कर्ष पर था। उसका प्रमाण बुद्ध के समकालीन वैद्य जीवक कौमारभृत्य के जीवन चरित्र में मिलता है। जिस तरह चिकित्सा शास्त्र में ‘‘रोगो, रोगहेतुः आरोग्यं, भैषज्यमिति एवंमिदमपी शास्त्रं चतुर्व्यूह्मेव तद् यथा संसारः संसार हेतुर्मोक्षो मोक्षोपाय इति।’’ अर्थात् जिस तरह चिकित्सा शास्त्र में रोग, रोग का हेतु, रोग-निरोध (आरोग्य) रोग की दवा है, उसी तरह योग शास्त्र में भी संसार, संसार-हेतु, मोक्ष और मोक्ष के उपाय होते हैं। तथागत ने रोग से छुटकारा दिलाने वाले चिकित्सा शास्त्र में चतुर्थव्यूह सिद्धान्त का ही निरूपण चार सत्यों के रूप में कर दिया है ऐसा लगता है।
तथागत पर पक्ष के सिद्धान्तों के खण्डन में और स्वपक्ष के सिद्धान्तों के स्थापन में सर्वत्र तर्क शक्ति का सहाय्य लेते दिखते हैं। तर्कशास्त्र पक्ष, साध्य, हेतु दृष्टांत इन चार विषयों पर आश्रित है। संभवतः वुद्ध ने तृष्णा उच्छेद वाले चार आर्य सत्यों का सूत्र इसी तर्क शास्त्र से पाया हो तो कोई असम्भव नहीं है।
महात्मा बुद्ध बड़े तर्कपूर्ण ढंग से अपने प्रश्नकर्ताओं को, शिष्यों की तथा विरोधियों को उत्तर देेते थे। एक दो उदाहरणों से उनकी इस शैली का अनुमान हो सकता है। एक बार माहत्मा बुद्ध चारिका करते करते नालन्दा गये और वहाँ अपने पुराने स्थान आम्रवन में ठहरे। उस समय निग्गंठ नाथ पुत्र भी नालन्दा में थे। निग्गंठों की परिषद् से दीर्घ तपस्वी नाम का एक भिक्षु धुमते फिरते आम्रवन में गया और बुद्ध को प्रणाम कर एक ओर खड़ा हो गया। बुद्ध ने आसन की ओर इशारा करते हुए बैठने को कहा। बैठने पर महात्मा बुद्ध ने पूछा- दीर्घ तपस्वी तुम्हारे शास्ता पापकर्मों से छूटकारा पाने के लिए कितने प्रकार के कर्मों का विधान करते हैं। उसने कहा कि ‘‘मेरे शास्ता पापकर्म से मुक्त करने के लिए कर्म का नहीं दंड का विधान करते हैं।’’ महात्मा बुद्ध ने पूछा कि कितने और कौन-कौन से- इस पर उसने उत्तर दिया कि तीन प्रकार के दंड है- (1) काय दण्ड, (2) वचन दण्ड और (3) मनोदण्ड।’’ बाद मे तपस्वी ने पूछा महात्मा आप पापमोचन के लिए कितने प्रकार के दंड का विधान करते हैं। इस पर महात्मा बुद्ध ने कहा कि-‘‘मेरे यहां दण्ड का विधान नहीं है, कर्म का विधान है और वे है काय कर्म, वयन कर्म तथा मनः कर्म।’’
मगध राज आजात शत्रु वैशाली पर चढ़ाई करना चाहते थे। उन्होंने अपने मंत्री वर्षकार को महात्मा बुद्ध के पास राय लेने के लिए भेजा। तथागत उस समय राजगृह में ही थे। मंत्री वर्षकार गृद्धकुट पर्वत पर गया और वैशाली पर चढ़ाई करने के प्रश्न पर तथागत की सहमति चाही। उस समय आनन्द भगवान को पंखा झेल रहे थे। बुद्ध ने आनन्द से कहा कि क्या तुम जानते हो कि बज्जी सात अपरिहाणीय धर्म का पालने करते हैं। हां मन्ते जानता हूं। त बुद्ध ने वर्षकार से कहा-‘‘ब्राह्मण जबतक बज्जी- (1) सन्निपात, बहुल हैं, (2) जब तक वे एक हो बैठक करते हैं, (3) जबतक वे अप्रज्ञप्त को प्रज्ञप्त और प्रज्ञप्त को अप्रज्ञप्त नहीं करते, (4) जबतक वे वृद्धों को मानते एवं पूजते हैं, (5) जबतक वे कुल स्त्रियों के साथ जबरदस्ती नहीं करते, (6) जबतक वे अपने चैत्यियों की पूजा करते हैै, (7) जबतक वे अपने अर्हतों की रक्षा करते हैं। वर्षकार तबतक उन बज्जियों को कोई पराजित नहीं कर सकता।
इसी प्रकार की अनेक कथाएं महात्मा बुद्ध के जीवन से जुड़ी है। तथागत अपने अंतिम समय में भी प्रश्नकर्ताओं को उत्तर देने के लिए तैयार थे। कुशीनगर में महापरिनिर्वाण की अंतिम वेला में भी जबतक उन्हें होश था उन्होंने उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए कहा था कि तुम लोगों में से यदि किसी को मेरे विचारों के प्रति कोई शंका रह गई हो तो उसका निराकरण मुझ से करा लें ताकि मेरे नहीं रहने के बाद तुम में से कोई यह नहीं कह सके कि तथागत ने मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये। ऐसे थे महात्मा बुद्ध।
बुद्ध को बाद में विष्णु के दश अवतारों में भी माना गया था। इसकी शुरूआत महाकवि जयदेव से हुई थी। उन्होंने देशावतार के वर्ण में उन्होंने-
‘‘निन्दशी यज्ञ विधेय रहसिश्रुति जातम।
सदय हृदय दर्षित पशुधातम केशव घृत बुद्ध शरीर।’’
कहकर उनकी प्रार्थना की है। आज भी धर्म पारायण हिन्दू समाज अपने दैनिक कर्मों में संकल्प करते समय ‘बौधावतारे’ कह कर भगवान बुद्ध का श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। हिन्दुओं के 10 पुराणों में लगभग सभी में किसी न किसी प्रकार बुद्ध का उल्लेख किया गया है। अग्नि पुराण में तो
‘‘शांत आत्मा लम्ब करणच गौरांगम चीवशम्बरावृतः उर्ध्व पद्यमस्थितः बुद्धः वरदाम् अभयदायकः।’’
के रूप में उनका ध्याप अंकित किया गया है।