पटना, ४ जुलाई। “कब तक बोझ संभाला जाए/युद्ध कहाँ तक टाला जाए/ दोनों ओर लिखा हो भारत/ सिक्का वही उछाला जाए—–, इस गंदी सियासत से परेशान सा क्यों है? हैवान की फ़ितरत लिए, शैतान सा क्यों है? गांधी नहीं, नेहरु नहीं, वो बुद्ध भी नहीं, उस शख़्स का चेहरा भला भगवान सा क्यों है?”— इस तरह की, देश–भक्ति और सवाल उठाती पंक्तियों के साथ, शनिवार की संध्या, राष्ट्रीय–सद्भावना के अत्यंत लोकप्रिय कवि डा वाहिद अली ‘वाहिद‘ लखनऊ से, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के फ़ेसबुक पटल पर लाइव थे। एक हज़ार से अधिक की संख्या में इस पटल से लगातार जुड़े रहे, सुधी दर्शकों का एक घंटे का समय कैसे हवा की तरह निकल गया, पता भी न चला। मंत्र–मुग्ध से लोग ‘वाहिद‘ के ओजस्वी काव्य–छंदों को सुनते रहे और अपनी प्रतिक्रिया भी देते रहे।
अपने देश के प्रति, समस्त भारतवासियों की निष्ठा का आह्वान करते हुए उन्होंने वीरों के सम्मान में यह छंद पढ़ा कि, “हिन्दी तन है, हिन्दी मन है, रहते हिंदुस्तान में/ जीवन जिनका सदा समर्पित भारत के उत्थान में/ जिनकी क़लम बनी पतवारें, अंग्रेज़ी तूफ़ान में/ चलो तिरंगा फहरा देते हैं, फिर उनके सम्मान में“। उन्होंने दर्शकों के आग्रह पर अपना वह चर्चित छंद भी पढ़ा कि “इस बिगड़ैल पड़ोसी को तो फिर शीशे में ढाला जाए/ तू भी है राणा का वंशज/ फेंक जहाँ तक भाला जाए।” फिर सद्भाव की भी ये पंक्तियाँ पढ़ी कि, “तेरे मेरे दिल पर ताला/ राम करे ये ताला जाए/ ‘वाहिद‘ के घर दीप जले तो मंदिर तक उजियाला जाए“।
उनकी रचनाओं में ग़रीबों, मज़दूरों और कुत्सित संप्रदायवाद की चिंता भी प्रकट हुई। उन्होंने कहा कि, “इस मुल्क में मजबूर हैं, मज़दूर क्यों भूखे/ हर बात में ये हिन्दू – मुसलमान सा क्यों है? साहित्य और अपनी साहित्य–चेतना की मधुर चर्चा करते हुए, उन्होंने यह पंक्तियाँ भी पढ़ी कि, “वाहिद है तन कबीर सा, मन भी रहीम है/ तू आज भी इस दौर में रसखान सा क्यों है! — जो लिखता हूँ, कम लिखता हूँ/ आँख हुई जब नम लिखता हूँ/ एक डायरी दिल के अंदर/ जिस पर सिर्फ़ सनम लिखता हूँ”।
आरंभ में फ़ेसबुक पर सम्मेलन के इस साहित्यानुष्ठान के उद्देश्यों पर संक्षिप्त चर्चा के साथ, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने डा वाहिद का स्वागत किया और पूरे देश सहित दुनिया के अन्य हिस्सों से बड़ी संख्या में इससे जुड़ रहे सुधी साहित्यकारों एवं साहित्य–प्रेमियों के प्रति आभार प्रकट किया।