जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 03 जून ::दिखावे की चलन बनाये रखने के लिए और अपनी सुविधानुसार धर्म और संस्कृति से दूर होते जाने के लिए दोषी कौन है ? सनातन धर्म में शादी-शुदा महिलाएँ साड़ी पहनती है, सिन्दूर लगाती है, चूड़ी पहनती है, आज समाज में इससे वंचित कौन कर रहा है? आज सनातन धर्मावलंबी की शहरी महिलाओं ने साड़ी पहनना, सिन्दूर नाम मात्र जो किसी को दिखाई नहीं पड़े और चूड़ी के नाम पर छोटी बच्चियों की तरह एक एक चूड़ी या वाला पहनती हुई दिखाई देगी। एक समय था जब लड़कियाँ बिना दुपट्टा के घर से बाहर तो दूर घर में भी नहीं रहती थी, लेकिन आज शहर में दुपट्टा तो दूर अर्ध वस्त्र धारण कर बाहर निकलती है। इस धर्म और संस्कृति को किसने बिगड़ा ?किसी अन्य धर्म की महिलाओं को देखें, तो वे आज भी चाहे शहर हो या गाँव, उन्होंने अपने धर्म और संस्कृति को नहीं छोड़ा है। चाहे वे मुसलमान हो, सिख हो या हो ईसाई। लेकिन सनातनी ने अपनी संस्कृति और धर्म से विमुख क्यों हो रहा है।दूसरे धर्म की महिलाओं का कहना है कि सनातन धर्म की विवाहित महिलाओं ने माथे पर पल्लू तो छोड़िये, साड़ी पहनना तक छोड़ दिया। सिन्दूर और बिंदी तो उनकी पहचान हुआ करती थी। महिलाओं की कोरा मस्तक और सुने कपाल को तो सनातन धर्म में अशुभ, अमंगल और शोकाकुल होने का चिह्न मानते है। अब सनातन महिलाएँ घर से निकलने से पहले तिलक लगाना तो लगभग छोड़ ही दिया है। अब दूसरे धर्म की महिलाएँ पूछती है कि सनातन महिलाओं ने आधुनिकता और फैशन के चक्कर में और फारवर्ड दिखने की होड़ में माथे पर बिंदी लगाना क्यों छोड़ दिया? नामकरण, विवाह, सगाई जैसे संस्कारों को दिखावे की लज्जा विहीन फूहड़ रस्मों में और जन्म दिवस, वर्षगांठ जैसे अवसरों को बर्थ-डे और एनिवर्सरी फंक्शंस में क्यों बदल दिया?देखा जाय तो सनातन पुरुष लोगों ने तिलक, जनेऊ, शिखा आदि से अपने को अलग कर लिया है इसलिए अब यह पहचान केवल ब्राह्मण का रह गया है वहीं अधिकांश महिलाओं को भी माथे पर बिंदी, हाथ में चूड़ी और गले में मंगलसूत्र से लज्जा आने लगी है, इसलिए इन्हें धारण करना उन्हें अनावश्यक लगने लगा है और गर्व के साथ खुलकर अपनी पहचान प्रदर्शित करने में संकोच होने लगा है।तथाकथित आधुनिकता के नाम पर सनातन के लोगों ने स्वयं ही अपने रीति रिवाज, अपनी परंपराएं, अपने संस्कार, अपनी भाषा, अपना पहनावा, सब कुछ पिछड़ापन समझकर त्याग रहें है। दशकों से अपनी सनातन पहचान को मिटाने का काम सनातनी स्वयं ही कर रही है। आज भी ठीक वैसा ही कर रही है। वहीं अन्य धर्म के लोग अपनी पहचान आज तक यथावत बनाए रखे हुए है। आज सनातन के लोग स्वयं ही, मंदिरों में जाना तो दूर मंदिर की तरफ देखना तक छोड़ रहे हैं, मंदिर में जाते भी है तो तब जब भगवान से कुछ मांगना होता है, या फिर जब वह किसी संकट से छुटकारा पाना चाहता है।जबकि सनातन बच्चे को भगवद्गीता के श्लोक कंठस्थ करना चाहिए, ताकि वे अपनी अगली पीढ़ी को यह संस्कार दे सके। लेकिन जब अभिभावक अपने बच्चों को प्रणाम और नमस्कार के जगह हैलो हाय सिखायेंगे, पिताजी को डैड, डैडू, पापा और माता जी को मम्मी, मां, मॉम सिखायेंगे तो संस्कार कहाँ से पायेंगे। दूसरे धर्म के लोग कॉन्वेंट स्कूल की पढ़ाई करने के बाद घर आते है तो अपने धर्म ग्रंथ का भी अध्ययन करते है। जबकि सनातन बच्चे स्कूल से आकर अपनी धार्मिक पुस्तक रामायण नहीं पढ़ते है और ना ही गीता। संस्कृत को तो छोड़ ही दीजिए, शुद्ध हिन्दी भी ठीक से नहीं पढ़ता है। परिणाम होता है अपना धर्म और संस्कृति से दूर होते जाना।सनातन के लोगों को अपनी पहचान को खुलकर प्रदर्शित करना चाहिए, अपने संस्कारों में निष्ठा रखनी चाहिए, उन पर गर्व करना चाहिए, तत्परता से उन्हें सहेज कर उनका संरक्षण करना चाहिए, अपने समाज में अपनी सांस्कृतिक पहचान पर गर्व करने का और उसे अभिव्यक्त करने वाले सांस्कृतिक चिह्नों को धारण करने का कल्चर बनाना आवश्यक है।
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