विधि और अर्थ–शास्त्र के यशस्वी विद्वान साँवलिया बिहारी लाल वर्मा भारत के एक ऐसे आदरणीय महापुरुष थे, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन देश और समाज को समर्पित कर दिया था और अनेक आयामों से राष्ट्र और राष्ट्रभाषा की सेवा की। उनका दिव्य और आकर्षक व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे बहुगुणी प्रतिभा के स्वामी थे। इसीलिए समाजोपयोगी अनेक क्षेत्रों में अपना महनीय अवदान दिया। वे देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले अमर योद्धा, राष्ट्र–भाषा हिन्दी के महान पक्षधर, यशमान साहित्यसेवी, स्तुत्य शिक्षाविद, साहित्यिक, सांस्कृ
साँवलिया जी का जन्म एक कुलीन और संपन्न कायस्थ परिवार में, सारण ज़िला के मुख्यालय नगर छपरा में १८ जून, १८९६ को हुआ था। इनके पिता स्व मथुरा प्रसाद, सरकार के भूमि–निबंधक तथा भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा राजेंद्र प्रसाद के सगे मामा थे। ‘बिहार के निर्माता‘ कहे जाने वाले बाबू सच्चिदानंद सिन्हा इनके चचेरे भाई थे। इस प्रकार यह पूरा परिवार सुसंस्कृत, प्रज्ञावान और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त था। परिवार के सभी विद्यार्थियों में मेधा की स्वाभाविक प्रतिस्पर्द्धा थी और सभी ज्ञानार्जन के लिए आतुर रहते थे। साँवलिया जी की प्रारंभिक शिक्षा छपरा ज़िला स्कूल और फिर क्रमशः मोतिहारी और मुज़फ़्फ़रपुर ज़िला स्कूल में हुई। उन्होंने १९१४ में प्रवेशिका (मैट्रिक) की परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे की शिक्षा के लिए आपका नामांकन मुज़फ़्फ़रपुर के ‘भूमिहार ब्राह्मण कालेज‘ में कराया गया, जहाँ आपको उस समय के महान समाजवादी चिंतक और इतिहास के प्राध्यापक, आचार्य जे बी कृपलानी का निकट सान्निध्य और आशीर्वाद प्राप्त हुआ, जिनसे आपको भारत के महान और गौरवशाली इतिहास के साथ विश्व इतिहास की शिक्षा प्राप्त हुई। सन १९२० में आपने पटना के विश्रुत महाविद्यालय ‘पटना कालेज‘ से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। पटना विश्वविद्यालय में आपको सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ था। पटना कौलेज के तत्कालीन अंग्रेज़ प्राचार्य एच ए हौर्न ने उनकी प्रतिभा पर मुग्ध होकर,उन्हें उच्च शिक्षा हेतु इंग्लैंड भेजने की पुरज़ोर अनुशंसा की थी, किंतु देश–भक्ति में चूर साँवलिया जी ने स्वयं ही इस अंग्रेज़ी कृपा को अस्वीकार कर दिया।
सन १९२१ में सावलिया जी, पटना कालेज में ही, जिसके वे पिछले वर्ष तक विद्यार्थी थे, अर्थशास्त्र के प्राध्यापक नियुक्त हो गए। अध्यापन के साथ–साथ उनका साहित्याध्ययन का कार्य भी निष्ठापूर्वक चलता रहा। साहित्य में इनकी अभिरूचि छात्र–जीवन से ही हो गई थी, तथा वे निबंध आदि लिखने लगे थे। जब वे स्नातक के छात्र थे, तभी ‘यूरोपीय महाभारत‘ नामक ग्रंथ का प्रणयन कर लिया था। मात्र २१ वर्ष की आयु (१९१५) में उनकी यह बहुचर्चित पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी। सन १९१९ में जब बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना हुई, तब से वे इस संस्था से भी गहरे जुड़े रहे तथा इसके सभी अधिवेशनों में भाग लेते रहे। वे अखिल भारत वर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन से भी जुड़ गए थे और उन्हें सम्मेलन के तपस्वी प्रधानमंत्री राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जी का स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त था। वे उसकी स्थाई समिति के लगातार सदस्य रहे। १९२३ में सम्मेलन के किसी अधिवेशन में भाग लेने के लिए उन्होंने महाविद्यालय प्रशासन से अवकाश के लिए प्रार्थना की तो ,यह कारण बताकर कि ‘यह कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नही है‘ उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी गई। ‘हिन्दी–प्रेम‘ में डूबे साँवलिया जी को, यह केवल दुःख का ही नही, ‘हिन्दी का अपमान‘ का कारण भी समझ में आया और उन्होंने उसी पत्र के साथ अपना त्याग–पत्र सौंप दिया। इसी वर्ष उन्होंने विधि–स्नातक (बी एल) की उपाधि भी प्राप्त कर ली थी। विश्व विद्यालय छोड़कर, अपने गृह–नगर छपरा लौट आए तथा स्थानीय न्यायालय में वकालत शुरू कर दी।
यहाँ भी उनके सारस्वत और सामाजिक सरोकारों के कार्य अनवरत गीतिशील रहे। वे ‘हिन्दी साहित्य परिषद‘, ‘नव युवक समिति‘, ‘नाट्य–परिषद‘ की स्थापना कर युवकों में साहित्यिक और सांस्कृतिक जागरण का कार्य करते रहे। १९२५ में उनकी दो महत्त्वपूर्ण साहित्यिक–कृतियाँ‘गद्य चन्द्रिका‘ और ‘गद्य चंद्रोदय‘ शीर्षक से प्रकाशित हुई। इन पुस्तकों में उन्होंने अपने समय के पूर्व के अनेको मनीषी हिन्दी–सेवियों को श्रद्धापूर्वक स्मरण किया था और उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की सविस्तार चर्चा की थी। इन पुस्तकों ने उन्हें हिन्दी–जगत में एक श्रेष्ठ गद्यकार के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। १९२७ में सोनपुर में आयोजित, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के विशेष अधिवेशन का उन्हें सभापति चुना गया था। इसका आयोजन, अंग्रेज़ सरकार द्वारा गठित ‘वर्नाक्यूलर डेवलपमेंट कमिटि‘ के प्रतिवेदन पर विचार करने के लिए किया गया था। इसकी अनुशंसाएँ लागू होने पर, हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि पर अत्यंत घातक प्रभाव होना निश्चित था। वर्मा जी के सुदृढ़ प्रतिरोध के कारण उस समिति की अनुशंसाएँ अस्वीकृत कर दी गईं। इस अधिवेशन में उनके अध्यक्षीय भाषण की चतुर्दिक चर्चा हुई, जिसमें उन्होंने ‘हिन्दी और उर्दू‘ को लेकर खड़े किए जा रहे प्रश्नों का अत्यंत तार्किक उत्तर देते हुए, हिन्दी की महनीयता, सरलता और सार्वजनिक स्वीकृति की प्रतिष्ठापना की थी। उनकी भाषा सरल और विधियुक्त तार्किक होती थी, जिसका गहरा प्रभाव श्रोताओं और पाठकों पर पड़ता था। उन्होंने अपने भाषण में यह सिद्ध किया कि, किस प्रकार अंग्रेज़ी सरकार, भारत में हिन्दू–मुसलमानों के बीच, सांप्रदायिक और भाषायी विवाद उत्पन्न कर, इस देस को बाँटने का षडयंत्र कर रही है। उनका यह विचार आज भी प्रासंगिक है कि ;- “भाषा शास्त्र के नियमों के अनुसार, भाषा की पहचान उसमें आए हुए अन्य भाषाओं के शब्दों से नहीं, बल्कि उस भाषा की क्रियाओं, क्रिया–पदों, सर्वना
अपने फ़ुफेरे भाई डा राजेंद्र प्रसाद के कारण साँवलिया जी महात्मा गांधी के भी निकट संपर्क में आ चुके थे तथा कांग्रेस के कार्यक्रमों से भी जुड़ चुके थे। सन १९३० में महात्मा गांधी द्वारा आहूत ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन‘ और ‘नमक सत्याग्रह‘ में भाग लेने के कारण वे गिरफ़्तार हुए। इस कारण वकालत का कार्य स्थगित हो गया। १९३१ में ‘गांधी–इरविन समझौता‘ के उपरांत गांधी जी और राजेंद्र बाबू की प्रेरणा से आपने सीतामढ़ी में रह कर कांग्रेस–संगठन और सेवा का कार्य आरंभ किया। सीतामढ़ी में उनकी पुश्तैनी ज़मींदारी भी थी, इसलिए भी राजेंद्र बाबू का यह परामर्श उचित ही था कि इससे दोनों अभीष्ट सिद्ध होंगे। सैकड़ों बीघे की ज़मींदारी की देखभाल भी हो जाएगी, सदुपयोग भी होगा और सीतामढ़ी को एक सर्वथा योग्य संगठक भी मिल जाएगा। आगे चलकर उन्होंने अपनी भूमि का बहुत बड़ा हिस्सा विभिन्न संस्थाओं को दान में दे दिए। सन १९५९ में सीतामढ़ी के मुख्यालय उपनगर ‘डुमरा‘ में ‘गीता–भवन‘ ना
कुछ अंतराल के पश्चात साँवलिया जी ने सीतामढ़ी न्यायालय में अपना कार्य आरंभ किया। अपनी चमत्कृत करने वाली मेधा, राष्ट्रीय आंदोलन में अग्रणी भूमिका, स्तुत्य साहित्य–सेवा और आत्मीय व्यवहार के कारण वे अल्प समय में ही जिले के सर्व–सामान्य के बीच लोकप्रिय हो गए। वे जीवन पर्यन्त सीतामढ़ी ज़िला अधिवक्ता संघ के अध्यक्ष रहे। सीतामढ़ी में सुप्रतिष्ठ ‘गोयनका महाविद्यालय तथा डुमरा में ‘बहुद्देशीय उच्च विद्यालय‘ (एम पी हाई स्कूल) की स्थापना में भी आपकी बड़ी भूमिका रही। आप इन दोनों संस्थाओं की संचालन समिति के सचिव भी रहे। आपने अनेक स्थानों पर पुस्तकालयों की स्थापना भी की। मोतिहारी में ‘नवयुवक पुस्तकालय‘ आज भी जीवित और उनके नाम को धन्य कर रहा है। बिहार विधान परिषद के लिए जब स्नातक–क्षेत्र से निर्वाचन की प्रक्रिया आरंभ हुई, तोवे ‘तिरहुत स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए, प्रथम पार्षद (विधायक) थे। वे अनेक वर्षों तक बिहार थियोसौफ़िकल सोसायटी के भी अध्यक्ष रहे।
देश की स्वतंत्रता के पश्चात उनका सारा ध्यान साहित्य–सृजन और वैदिक वांगमय के अनुशीलन में लगा रहा। उन पर महायोगी महर्षि अरविन्दो का गहरा प्रभाव था। वे सांप्रदायिकता के संकीर्ण विचारों से सर्वथा और सर्वदा ऊपर रहे। उनकी दृष्टि संपूर्ण मानवतावादी थी और यह उनके विपुल साहित्य में अनेक स्थलों पर प्रकट हुआ। उन्होंने ‘इस्लाम की झाँकी (१९४८), विश्व धर्म–दर्शन (१९५३), ‘भारत में प्रतीक पूजा का आरंभ एवं विकास‘ (१९७५) तथा दो खंडों में प्रकाशित ‘गीता–विश्वकोष‘ नामक ग्रंथों का प्रणयन किया। इनके अतिरिक्त ४० उपनिषदों पर भाष्य लिखे, जिनसे उनके व्यापक मानवता–वादी आध्यात्मिक दृष्टि और वैदिक साहित्य के व्यापक अध्ययन का पता चलता है। उन्होंने राजेंद्र बाबू की प्रेरणा से ‘अन्तर्राष्ट्रीय विधि‘ (१९६५) नामक एक वृहद ग्रंथ भी लिखा, जो भारत के अधिवक्ताओं के अन्तर्राष्ट्रीय विधि–ज्ञान की वृद्धि में अनेक प्रकार से सहायक सिद्ध हुआ है। ‘लोक सेवक महेंद्र प्रसाद‘ ( १९३७) तथा ‘दो आदर्श भाई‘(१९५५) नामक दो ग्रंथ उन्होंने ऐसे लिखे, जिनमे राजेंद्र बाबू और उनके बड़े भाई प्रातः स्मरणीय महेंद्र प्रसाद के आदर्श व्यक्तित्व और कृतित्व को उजागर करते हैं। इनमे से दूसरा ग्रंथ, दो आदर्श भाइयों की प्रीति और जन–कल्याणकारी सेवाओं का अनुकरणीय दृष्टांत है।
साँवलिया जी अध्ययन और अनुशीलन अनुरागी ही नही देशाटन अनुरागी भी थे। अपनी राष्ट्रीय भावना और स्वाभिमान के कारण उन्होंने इंग्लैंड–यात्रा का त्याग अवश्य कर दिया था, किंतु भारत का जी भर कर भ्रमण किया। अत्यंत रोचक और ज्ञान–वर्द्धक यात्रा–संस्मरण भी लिखे। इस प्रकार वे हिन्दी में ‘यात्रा–साहित्य‘ के बड़े अभावों की पूर्ति में भी सहायक हुए। उनकी पुस्तकें ‘दक्षिण भारत की यात्रा‘ (१९५६), ‘रामेश्वरम–यात्रा‘ (१९६०) तथा ‘बद्री–केदार यात्रा‘ (१९६१) यात्रा–साहित्य की अत्यंत मूल्यवान ग्रंथ हैं। उन्होंने हिन्दी के साथ अपनी ‘माई की बोली‘ (भोजपुरी) के साथ भी न्याय किया। भोजपुरी में भी यथेष्ट लिखा। ‘रामेश्वरम–यात्रा‘ भोजपु
अपने अत्यंत मूल्यवान, गुणवत्तापूर्ण और कल्याणकारी जीवन के अवसान–काल में उन्होंने ‘तब और अब‘ शीर्षक से अपनी ‘आत्म–कथा‘ भी लिखी थी, जो प्रकाश में नही आ सकी। इनके अतिरिक्त ४० उपनिषदों का भाष्य लिखा, जो पुस्तक रूप में नही आ सका। यों इनका प्रकाशन साहित्यिक पत्रिका ‘नई धारा‘ में धारावाहिक रूप से होता रहा था। वे लोक–मंगल के अपने सभी विचार लिपि–बद्ध करते रहे, जो विभिन्न आलेखों के रूप में पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। सामाजिक कुरीतियां उन्हें पीड़ित किया करती थी। अपने एक आलेख में उन्होंने सत्य ही लिखा कि,- “सामाजिक कुरीतियों से हमारी (भारत की) जातीय शक्ति का बिलकुल ह्रास हो गया है। फलतः हमारे लौकिक और पारमार्थिक आदर्श अब केवल हमारे इतिहास और शास्त्रों के पन्नों में ही मिलते हैं“।
स्वतंत्रता के पश्चात भी भारतीय समाज की विपन्नता के लिए वे निरंतर चिंतित रहे ।बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की पत्रिका ‘परिषद–पत्रिका‘ के, अप्रै
८४ वर्ष की आयु में इस वरेण्य महापुरुष ने २९ दिसम्बर १९७९ की रात्रि में, डुमरा (सीतामढ़ी) स्थित अपने आवास पर,अपने लैकिक देह का त्याग कर दिया। डुमरा के ‘गीता–भवन‘ में उनकी स्मृतियाँ आज भी संरक्षित हैं,जहाँ १९५९ से आज तक प्रतिदिन किसी न किसी संत/आचार्य द्वारा ‘गीता और रामायण‘ का पाठ होता है। इसके पुस्तकालय में वैदिक और आध्यात्मिक–साहित्य समेत, गीता पर विभिन्न भाषाओं में और विभिन्न लेखकों की ६०० से अधिक भाष्यों (पुस्तकों) का संग्रह है। यहाँ निर्धन–अनाथ विद्यार्थियों को आश्रय और शिक्षा दी जाती है। इसके सभागार में, प्रायः ही साहित्यिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक उत्सव और सभाएँ हुआ करती हैं। प्रतिवर्ष निर्धन कन्याओं का सामूहिक विवाह भी कराया जाता है।